Tuesday, June 30, 2015

जमीनी बजट : कहीं राह, कहीं रोड़े


- बंटवारे-पारिवारिक दान पर स्टॉम्प ड्यूटी 2.5 प्रतिशत घटी
- 5 प्रतिशत स्टॉम्प ड्यूटी पर ही होगी पॉवर
इंदौर. चीफ रिपोर्टर । 
अपने मलाईदार बजट से व्यापारियों के दिल में जगह बनाने में काफी हद तक कामयाब रहे वित्त मंत्री जयंत मलैया जमीनी मामले में मिलाजुला रंग ही जमा पाए। उन्होंने बटवारे और परिवार के दान पत्र की संपत्तियों पर लगने वाली स्टॉम्प ड्यूटी में 2.5 प्रतिशत की राहत दी तो दूसरी तरफ पॉवर आॅफ अटर्नी के लिए 5 प्रतिशत की स्टॉम्प ड्यूटी तय कर दी। जानकारों की मानें तो एक फैसले ने राहत दी तो दूसरा बड़ी आफत साबित होगा।
बजट से पहले वित्तमंत्री और महानिरीक्षक पंजीयक से मुलाकात कर वकीलों ने कुछ मुद्दे रखे थे। बजट में इनसे से दो पर काम करते हुए मंत्री मलैया ने बटवारे और पारिवारिक दान पत्र पर संपत्तियों के आदान-प्रदान पर लगने वाली स्टॉम्प ड्यूटी 5 से घटाकर 2.5 प्रतिशत कर दी है। एडवोकेट प्रमोद द्विवेदी ने बताया कि 1994 में जब स्टॉम्प ड्यूटी 12.5 प्रतिशत थी उस वक्त भी बंटवारे और पारिवारिक दान पत्र पर संपत्तियों के आदान-प्रदान पर 4-5 प्रतिशत स्टाम्प ड्यूटी लगती थी। अब जबकि स्टॉम्प ड्यूटी घटकर 5 प्रतिशत रह गई है तब भी यह ड्यूटी इतनी है। यानी जितना पैसा सपंत्ति खरीदने पर चुकाना पड़ रहा था उतना ही दान या बंटवारे में मिलने पर चुकाना पड़ता था। इसीलिए हमने इस मामले में नितिगत निर्णय की मांग की थी। जवाब में मंत्री ने 2.5 प्रतिशत की कटौती की।
बड़ा फैसला यह भी...
पॉवर आॅफ अटर्नी के नियमों में बदलाव किया है। अब तक एक रुपए से लेकर अरबों तक की जमीन 1000 रुपए के स्टॉम्प पर पॉवर कर दी जाती थी। अब ऐसा नहीं होगा। अब पॉवर के लिए भी 5 प्रतिशत ड्यूटी चुकाना होगी जो कि संपत्ति की खरीदी-बिक्री के दौरान चुकाना पड़ती है। राहत के नाम पर सिर्फ यही है कि पॉवर आॅफ अटर्नी पर सौदे की तरह 1 प्रतिशत नगर निगम, 1 प्रतिशत पंचायत और 0.25 प्रतिशत उपकर नहीं चुकाना पड़ेगा।
महंगी हुई पॉवर
- अब तक हजार रुपए के स्टॉम्प पर पॉवर हो जाती थी जो कि सालभर तक मान्य रहती थी।
- अब 5 प्रतिशत स्टॉम्प के साथ साइन होने वाला पॉवर अनिश्चिितकालीन होगा।
- इससे पहले पॉवर पर 2 प्रतिशत स्टॉम्प शुल्क था जिसे सरकार ने हटाकर 1 हजार का स्टॉम्प तय कर दिया था। अपने ही नियम को बदलते हुए सरकार ने स्टॉम्प शुल्क फिर 5 प्रतिशत कर दिया जो कि अब तक की सबसे ऊंची दर है।
नुकसान ...
- छोटे-मोटे कामों के जरिए लाभ लेने के लिए जमीन कारोबार में जुड़े लोग कारोबार से दूर हो जाएंगे।
- मकान, दुकान, फ्लेट, प्लॉट और महंगे होंगे।
- क्योंकि स्टॉम्प ड्यूटी में होने वाला खर्च निवेशकर्ता को ही चुकाना होगा।
- चोरी के और तरीके बढ़ेंगे। लोग कच्चे कागजो, आवंटन पत्र और डायरी के आधार पर ही व्यापार करेंगे।
- भूमि विवाद और पुलिस की कमाई बढ़ेगी। 

देश के टॉप-10 कर्जेदारों में इंदौर की जूम भी


कमीशन की कहानी : एक के बाद एक बैंकों ने दिखाई थी मेहरबानी
बैंकों का अस्तित्व सैकड़ों-हजारों छोटे-मोटे खातेदारों की जमा पूंजी पर टिका है। जरूरत के वक्त इन्हीं जमाकर्ताओं को कर्जे के कायदों की मोटी किताब पढ़ा दी जाती है। दस्तावेजों की थप्पी लगाने के बाद भी फाइलें रिजेक्ट कर दी जाती है। कभी सिविल रिपोर्ट की दहशत। कभी भारी-भरकम ब्याज दर का डर। कभी कुर्की-नीलामी के नोटिस का डर। कभी बाउंसर। इन सबसे दूर बैंक प्रबंधक से लेकर बोर्ड आॅफ डायरेक्टर तक मोटी कमीशन की आड़ में ऐसे ‘करोड़पतियों’ को कर्जा दिए बैठे हैं जो चुकाने के नाम पर कायदे बताकर हाथ खड़े कर चुके हैं। इनके लिए बैंकों के पास न बाउंसर है और न ही सिविल का डर। इसीलिए देश के ‘कुबेरों’ का 2.36 लाख करोड़ रुपया बकाया है। बकाया की यह रकम लगातार बढ़ रही है। 
इंदौर. विनोद शर्मा । 
बैंकों ने बीते दिनों केंद्रीय वित्त मंत्रालय को देश के प्रमुख 10 बड़े बकायादारा ‘कुबेरों’ की सूची सौंपी है। इस सूची में सातवें नंबर मुरैना की केएस आॅइल प्रा.लि. है जबकि आठवें क्रम पर इंदौर की जूम डेवलपर्स प्रा.लि.। सिर्फ इन दोनों पर ही 3124 करोड़ रुपया बकाया है। भारी-भरकम रिश्वत और 3 प्रतिशत की कमीशन के चक्कर में जिम्मेंदारों ने रिकवरी की चिंता किए बिना ही एक के बाद एक बैंकों के खजाने इनके लिए खोल दिए। बात सिर्फ जूम डेवलपर्स की ही करें तो समूह ने एक के बाद एक दो दर्जन बैंकों को 2600 करोड़ से ज्यादा का झटका दे दिया।
देश के 50 कर्जदारों के पास दिसंबर 2013 तक बैंकों का 53,000 करोड़ रुपया फंसा हुआ है। बैंकों ने इनकी सूची वित्त मंत्रालय को भेजी है। इसमें 19 कंपनियां ऐसी है जिनके पास 1000 करोड़ से ज्यादा बकाया है। अगर आम आदमी कर्ज ले तो उसे चुकाना भी पड़ेगा लेकिन हर शहर में ऐसे लोगों की संख्या भी कम नहंी हैं जो चुकाने के नाम पर चुप्पी साधकर बैठ जाते हैं। इनसे वसूली इसलिए भी मुश्किल है क्योंकि  हमारे कानून में कई कमियां हैं। इन खामियों का फायदा उठाकर प्रमोटर बच निकलते हैं। बैंकों का पैसा फंस जाता है। आम जर्माकर्ताओं की मानें तो डिफाल्टरों के साथ इन्हें लोन देने वाले बैंक के कर्ताधर्ताओं पर भी कार्रवाई होना चाहिए।
क्यों जरूरी है नकेल...
- जूम डेवलपर्स पर जितना पैसा बकाया है उतना तो मप्र की सबसे बड़ी इंदौर नगर निगम का एक साल का वास्तविक बजट भी नहीं है। इंदौर का वास्तविक बजट 800 करोड़ का है।
- सामान्यत: बैंकों में ऐसे खातेदारों की संख्या 80 फीसदी तक रहती है जिनके खातों में 5 लाख से कम जमा हो। यदि औसत 5 लाख की जमापूंजी का भी एक खाता माना जाए तो चौधरी के कर्जे और बैंक संचालकों के मजे की सजा  37776 खातेदारों को अपनी जमापूंजी से चुकाना पड़ रही है।
इंदौर के अन्य बड़े बकायदारा...
बेटा नेपथॉल - 692.40 करोड़
अम्बिका सॉल्वेक्स - 147.95 करोड़
मांडवी माइन्स प्रा.लि. - 88.92 करोड़
मैथसंस प्लास्टिक्स एंड ग्लासेस प्रा.लि. - 64.96 करोड़
इस्सर अलॉय एंड स्टील लि. - 49.91 करोड़
मिडमैक्स ग्लोबल प्रा.लि. - 31.28 करोड़
नर्मदा वेअर हाउस - 31.19 करोड़
उत्कर्ष इंडस्ट्री प्रा.लि. - 29.98 करोड़
पिथमपुर स्टील प्रा.लि. - 24.49 करोड़
माया स्पीनर्स प्रा.लि. - 20.27 करोड़
जूम डेवलपर्स ने ऐसे बूना कर्जे का तानाबाना
बैंक ब्रांच बकाया (करोड़)
पंजाब नेशनल बैंक मुंबई 410.18
यूको बैंक मुंबई 309.50
यूनियन बैंक आॅफ इंडिया मुंबई 241.69
ुइंडियन बैंक मुंबई 238.73
ओरियंटल बैंक आॅफ कॉमर्स मुंबई 127.78
स्टैट बैंक आॅफ हैदराबाद मुंबई 113.90
आंध्रा बैंक मुंबई 65.44
कर्नाटका बैंक लि. मुंबई 63.48
देना बैंक मुंबई 56.84
विजय बैंक मुंबई 53.03
तमिलनाडू मर्केटाइल बैंक मुंबई 45.65
फेडरल बैंक मुंबई 34.30
स्टैट बैंक आॅफ पटियाला मुंबई 73.03
कॉर्पोरेशन बैंक मुंबई 55.31
कुल 1888.87
(यह दिसंबर 2013 की स्थिति है। अब तक करीब 200 करोड़ रुपए की रिकवरी बैंके संपत्ति कुर्क करके कर चुकी है।)
इन नामों पर लिया लोन...
आंध्रा बैंक - बी.एल.केजरीवाल, विजय चौधरी
देना बैंक - बिहारीलाल केजरीवाल, विजय चौधरी
इंडियन बैंक - बी.के.केजरीवाल, एस.प्रधान, विजय चौधरी
कर्नाटका बैंक - बिहारीलाल केजरीवाल, विजय चौधरी, यशपाल साहनी
ओरियंटल बैंक - बिहारीलाल केजरीवाल, डी.एन.भाखाई, के.पी.सेनगुप्ता,
-  प्रदीप सक्सेना, विजय चौधरी और वाय.पी.साहनी
पी.एन.बी. - बी.एल.केजरीवाल, माइकल स्टर्लिंग, विजय चौधरी
एस.बी.एच - बिहारीलाल केजरीवाल,  माइकल स्टर्लिंग, विजय मदनलाल चौधरी
तमिलनाडू मर्केटाइल्स - सुशांतकुमार प्रधान, विजय मदनलाल चौधरी
यूको बैंक - बी.एल.केजरीवाल, विजय चौधरी
यूबीआई - बी.एल.केजरीवाल, डी.एन.बखाई
जूम की तकनीक...
- जूम डेवलपर्स प्राइवेट लिमिटेड के नाम पर फेडरल बैंक, तमिलनाडू मर्केटाइल्स प्रा.लि, विजया बैंक, देना बैंक, कर्नाटका बैंक, ओरियंटल बैंक आॅफ कॉमर्स, इंडियन बैंक, यूनियन बैंक आॅफ इंडिया, यूको बैंक और पंजाब नेशनल बैंक का 1569.76 करोड़ बकाया है। जूम डेवलपर्स (प्राइवेट) लिमिटेड के नाम पर स्टैट बैंक आॅफ पटियाला और कॉर्पोरेशन बैंक का 128.34 करोड़ बकाया है। यहां (प्राइवेट) का है। जबकि जूम डेवलपर्स प्राइवेट लिमिटेड एक ही कंपनी है जिसका पंजीयन 1994 में हुआ था।
- जूम के नाम पर जहां स्वयं का नाम कभी विजय चौधरी तो कभी विजय मदनलाल चौधरी बताकर कर्ज लिया। कभी बिहारीलाल केजरीवाल को बी.के.केजरीवाल बताकर। नाम के शॉर्टफार्म और फूलफार्म का भरपूर इस्तेमाल किया।
- कंपनियां बदलबदल कर दिया झटका। जूम सॉफ्टेक प्रा.लि., मेग्निफिसेंट इन्फ्रा, चौधरी इनावेटिव बिजनेस, सनस्टार इन्फ्रा और रजत जैसी दर्जनभर से ज्यादा कंपनियों में चौधरी डायरेक्टर है।

यह है टॉप-8 डिफाल्टर...
1- किंगफिशर -4,022 करोड़
2- विनसम डायमंड -3,243 करोड़
3- इलेक्ट्रोथर्न इंडिया -2,653 करोड़
4- कॉपोर्रेट पॉवर -2,487 करोड़
5- स्टर्लिंग बायोटेक -2,031 करोड़
6- फोरएवर प्रेसस -1,754 करोड़
7- केएस आॅयल -1,705 करोड़
8- जूम डेवलपर्स -1,419 करोड़ 

(एमडी) विवादास्पद तुलसी नगर में फिर फर्जीवाड़ा

अब नाले पर कब्जा कर काट दिए प्लॉट
भराव कर बदल दी बहाव की दिशा
इंदौर, दबंग रिपोर्टर। निपानिया ग्राम पंचायत के तुलसी नगर में फिर एक बड़ा फर्जीवाड़ा सामने आया है। पुलिस-प्रशासन की मॉनिटरिंग के बावजूद यहां नाले पर कब्जा कर प्लॉट काटे गए और बिजली के खंभे लगाए जा रहे हैं। बेशकीमती जमीन पर कई प्लॉट काटने, इनकी बिक्री तथा अब यह हिस्सा विकसित करने की तैयारियों के चलते आसपास के लोगों में रोष है और जल्द ही वे इस मामले में निगम के वरिष्ठ अधिकारियों से शिकायत करेंगे।
भू-माफियाओं ने इस बार फर्जीवाड़े की शुरुआत बी सेक्टर नाले के पास की है। यहां निर्मित छह बंगलों के कोने की जगह खाली है। पास ही एक बड़ा नाला है। तीन-चार महीने पहले नाले की सफाई का काम चला और धीरे-धीरे इसके विपरीत हिस्से में लंबी खुदाई शुरू की जाने लगी। कुछ दिन बाद लोगों को पता चला कि यह खुदाई नाले को मिलाने के लिए की जा रही है। इसके बाद करीब आधा किलोमीटर हिस्से में मुरम डालकर उसकी दिशा बदली और प्लॉट की रूपरेखा बना दी गई।
डर के कारण नहीं की शिकायत
रहवासियों ने भू-माफियाओं के डर के कारण अब तक इसकी शिकायत नहीं की। 2007-10 के बीच तुलसी नगर में तेजी से अवैध निर्माण हुए थे। इस दौरान सरपंच हेमलता के पति किशोर पटेल ने भू-माफियाओं के साथ मिलकर संयुक्तिकरण कर कई भवन तान दिए। रहवासी संघ के अध्यक्ष संजय ठाकरे ने विरोध किया तो उन्हें धमकियां मिलीं। इस बीच आईजी, कलेक्टर व लोकायुक्त तक शिकायत पहुंची तो गोली मारकर ठाकरे की हत्या कर दी गई। तब जाकर पुलिस-प्रशासन सक्रिय हुआ और हत्या के मामले में सरपंच पति सहित अन्य के खिलाफ केस दर्ज करने के अलावा क्षेत्र में निर्माण पर प्रतिबंध लगा दिया गया। इसके बाद जनवरी 2012 में निपानिया ग्राम पंचायत के दो मामले, तुलसी नगर व महालक्ष्मी नगर में अवैध निर्माण आदि को लेकर तत्कालीन अध्यक्ष विवेक श्रोत्रिय की रिपोर्ट पर पूर्व सरपंच, सचिव सहित दो दर्जन से ज्यादा लोगों पर केस दर्ज किया गया।
लसूड़िया थाने से केस डायरी गायब
विडंबना यह कि इसमें से महालक्ष्मी नगर मामले में तो लसूड़िया थाने से केस डायरी ही गायब कर दी गई थी, जबकि तुलसी नगर मामले में तो दो-ढाई साल बाद भी चालान पेश नहीं किया गया। पुलिस के मुताबिक इसमें बिल्डरों सहित अन्य लोगों के जो नाम सामने आए हैं उनकी भूमिका की जांच एसआई ओएस भदौरिया कर रहे हैं।  बैडमिंटन हॉल बनाकर किराए पर दिया
इसके पूर्व भी तुलसी नगर के एए सेक्टर में बगीचे की जमीन पर बैडमिंटन हॉल बनाकर किराए से दे दिया गया। इस मामले में पिछले दिनों निगम की ओर से कॉलोनाइजर शिवनारायण अग्रवाल से ले-आउट प्लान और अन्य दस्तावेज मंगाए गए थे। इनमें से कुछ नहीं मिले। अग्रवाल का कहना है टाउन एंड कंट्री प्लानिंग में ही उक्त दस्तावेज उपलब्ध नहीं हैं। बहरहाल, क्षेत्र में प्रतिबंध के बावजूद न केवल निर्माण जारी है, बल्कि अब इस तरह से नए प्लॉट काटकर कॉलोनी का एक हिस्सा विकसित कर बड़ी कमाई की तैयारी है।

गड़बड़ियों से भरी मालवा काउंटी टॉउनशिप

ृ-ईओडब्ल्यु की प्रारंभिक जांच में 75 लाख से ज्यादा की गड़बड़ी
-टॉउनशिप को लाभ पहुंचाने के मामले में सांवेर के दो एसडीओ की खास भूमिका
-नियम विरुद्ध 25 प्रतिशत सिक्युरिटी की जमीन दे दी
-जल्द ही होगा धोखाधड़ी का केस दर्ज
इंदौर, दबंग रिपोर्टर।
बायपास स्थित करोड़ों की लागत की मालवा काउंटी टॉउनशिप के खिलाफ  राज्य आर्थिक अपराध अन्वेषण ब्यूरो (ईओडब्ल्यु) में हुई शिकायत की जांच अंतिम दौर में हैं। तीन साल पहले दर्ज हुई इस शिकायत में टॉउनशिप में ढेरों अनियमितताएं तो पाई ही गई लेकिन खास मामला सांवेर के तत्कालीन दो एसडीओ का है। इन दोनों अधिकारियों ने अपने पदों का दुरुपयोग करते हुए टॉउनशिप के कर्ताधर्ताओं को 75 लाख रु. से अधिक का लाभ पहुंचाया और शासन को चपत लगाई। ब्यूरो अगले माह इस मामले में कर्ताधर्ताओं सहित दोनों एसडीओ के खिलाफ धोखाधड़ी का केस दर्ज करने संबंधी प्रतिवेदन मुख्यालय को भेजेगा।
बायपास (नेशनल हाई वे आगरा-मुंबई) स्थित मालवा काउंटी टॉउनशिप को 2006 में निर्माण की अनुमति दी थी। यह टॉउनशिप दिल्ली के सत्य ग्रुप की है जिसकी अन्य शहरों में भी टॉउनशिप हैं। बहरहाल, निर्माण के दौरान ग्रुप ने शहरभर में इसके होर्डिंग्स लगाए और साथ ही लिटरेचर व अन्य माध्यम से इसका खासा प्रचार-प्रसार किया वटॉउनशिप में तमाम सुविधाएं देने की बात कही। इन सुविधाओं के नाम से कई लोगों ने कर्ताधर्ताओं से संपर्क साधा। इन्हें बताया गया कि इसका डिजाइन मे. राजिन्दरकुमार एसोसिएट (गुडगांव) द्वारा किया गया। उक्त ग्रुप देश का नंबर वन ग्रुप माना जाता है। हवाला दिया गया कि यह वही ग्रुप है जिसने जिसने गुडगांव में ग्रीन बिल्डंग, देशभर में कई अस्पतालों, कमर्शियल व रेसीडेंशियल कॉम्प्लेक्स की डिजाइन तैयार की है। टॉउनशिप की खूबसूरत डिजाइन व अत्याधुनिक सुविधाओं के मद्देनजर कई लोगों ने यहां अलग-अलग कीमतों के प्लॉट, फ्लैट आदि के लिए रुपए जमा कर दिए।
ये सुविधाओं का वादा
टॉउनशिप में हायपर मार्केट, शॉपिंग मॉल कम मल्टीप्लेक्स, आईटी पार्क, स्कूल, मेडिकल, सीवेज ट्रिटमेंट प्लांट, वाटर हारवेस्टिंग, क्लब, बैनक्वेट हॉल, पॉवर बेक अप, लिफ्ट, आरओ रूम, गार्डन, रिक्रिएशन हॉल, सिक्युरिटी गार्ड, इलेक्ट्रॉनिक सिक्युरिटी, इंटरकॉम, फायर अलार्म, विजिटर्स पार्किंग, तलघर, मेंटेनेंस स्टाफ, वाटर सप्लाय, स्टोरेज, बारिश का पानी की निकासी, वेस्ट डिस्पोजल आदि सुविधाएं देने का हवाला दिया गया। खास बात यह कि इसमें आईटी पार्क के लिए 6 एकड़ जमीन देने का वादा किया गया।
तीन साल का पजेशन छह साल बाद भी नहीं मिला
उक्त टॉउनशिप 110 एकड़ में विकसित की गई है। 2006 में जब लोगों ने यहां प्लॉट/प्लैट बुक कराए तो उन्हें 2000 में पजेशन देने का एग्रीमेंट किया गया था लेकिन 2011 तक नहीं दिया गया। ऐसे करीब 200 से ज्यादा लोग थे जिन्हें उस दौरान पजेशन नहीं मिला। इस पर इनमें से कुछ लोगों ने ईओडब्ल्यु को मामले की शिकायत की जिस पर मामला जांच में लिया गया।
ऐसे पता चली गड़बड़ियां
जांच में पता चला कि टॉउनशिप को लाभ पहुंचाकर शासन को चूना लगाने में सांवेर के दो एसडीओ की खास भूमिका रही है। दरअसल टॉउनशिप में रोड, पानी, बिजली व ड्रेनेज जैसी बुनियादी सुविधाओं को लेकर य्नियम है कि कुल जमीन में से 25 प्रतिशत राजस्व विभाग द्वारा सिक्युरिटी बतौर रखा जाता है। यानी जब तक 75 फीसदी हिस्से में ये तमाम सुविधाएं उपलब्ध नहीं होती तब तक यह 25 प्रतिशत हिस्सा निर्माण या अन्य कार्य के लिए नहीं दिया जा सकता लेकिन इसका भरसक मजाक बनाया गया। यह कारनामा 2006 से 2010 के बीच किया गया।
रेवेन्यू इंस्पेक्टर की शॉर्ट रिपोर्ट पर बेशकीमती जमीन सौंप दी
सूत्रों के मुताबिक 2010 में तत्कालीन एसडीओपी ने तो और भी बड़ी गड़बड़ी कर दी। शासन ने 25 प्रतिशत हिस्सा जो सिक्युरिटी बतौर के लिए रखा था, उसे एक रेवेन्यू इन्सपेक्टर (आरआई) की  शॉर्ट रिपोर्ट पर टॉउनशिप को दे दिया गया। विडम्बना यह कि इसके लिए अधिकारियों ने इसका भौतिक सत्यापन भी नहीं किया।
पंचायत को सुपरविजन के नाम 35 लाख रु. की चपत
जांच में पाया गया कि पंचायत को सुपरविजन शुल्क देने के मामले में भी अधिकारियों ने काफी मेहरबानी जताई। कुल निर्धारित शुल्क में से 35 लाख रु. की रियायत देकर शासन को राजस्व की चपत लगाई गई।
3 करोड़ पर तीन साल का ब्याज भी बख्शा
इसी तरह मप्र विद्युत कंपनी पर 3 करोड़ रु. देय था। इसका भुगतान 2009 में किया जाना था जो 2012 में किया गया। इसमें भी तीन साल की पेनल्टी व ब्याज करीब 15 लाख रु. नहीं जोड़ा गया। इस तरह अधिकारियों की मिलीभगत से 75 लाख रु. से ज्यादा की चपत लगाई गई। ईओडब्ल्यु अधिकारियों की माने तो यह आंकड़ा एक करोड़ रु. से ज्यादा का भी हो सकता है। इस मामले में अब अगले माह मुख्यालय को कर्ताधर्ताओं व एसडीपीओ पर केस दर्ज करने के लिए प्रतिवेदन तैयार कर मुख्यालय भेजा जा रहा है।

बस एक पखवाड़े में रिपोर्ट तैयार
जांच थोड़ी सी बाकी है। कई गड़बड़ियां मिली हैं। इसे क्रॉस चेक करने के लिए रेवेन्यू विभाग सहित अन्य विभागों से दस्तावेज मंगाए गए हैं। एक पखवाड़े में जांच पूरी हो जाएगी।
आनंद यादव, डीएसपी (ईओडबल्यु)


मामला माणिकबाग के निर्माणाधीन ब्रिज का

पांच भवनों को बचाने के लिए संकरा कर डाला 7 करोड़ का ब्रिज
-नाले पर स्थित मेडिकल दुकान के लिए ब्रिज को मोड़ दिया
-एक टॉउनशिप सहित चार भवनों को भी बख्शा
इंदौर, दबंग रिपोर्टर।
विकास के नाम पर किसी भी स्थिति में समझौता नहीं करने का दावा करने वाले नगर निगम ने 7 करोड़ की लागत के माणिकबाग ब्रिज के मध्य स्थित एक मेडिकल दुकान को बचाने के लिए ब्रिज को ही संकरा कर दिया। निगम के कर्ताधर्ता अधिकारियों ने न सिर्फ इस मेडिकल दुकान पर विशेष मेहरबानी की बल्कि इसकी सीध में आगे एक टॉउनशिप सहित चार भवनों को भी बख्शते हुए ब्रिज को आगे और भी ज्यादा संकरा कर दिया। चौंकाने वाली बात यह कि ब्रिज का निर्माण अंतिम दौर में है तथा अब सालों तक इस पर से गुजरने वाले लोगों को ऐसी विसंगतिपूर्ण निर्माण के रास्ते गुजरना होगा।
कुछ साल पर जब इस मार्ग के पहले हिस्से का ब्रिज का निर्माण शुरू हुआ जो लंबे समय तक चला। हालांकि ब्रिज बनने के बाद लोगों को राहत मिली। इस ब्रिज का एक छोर कलेक्टोरेट (हेमू कालानी चौराहे के पास है तो दूसरा खातीवाला टैंक के पास) है। इस मार्ग को आगे व्यवस्थित करने के लिए माणिकबाग ब्रिज (नाले के ऊपर) से एक और ब्रिज का प्रस्ताव बना। यह ब्रिज सिक्सलेन के लिए प्रस्तावित है और फिर तमाम प्रक्रियाओं के बाद इसे मंजूरी मिली। इसकी एक भुजा केंद्रीय उत्पाद एवं सीमा शुल्क के आॅफिस के सामने से शुरू ही गई जबकि दूसरी चोइथराम अस्पताल के पास से।
महत्वाकांक्षी इस ब्रिज बनाने के पीछे परिकल्पना यह है कि हेमू कालानी चौराहे के पास से शुरू हुआ यह पूरा मार्ग चोइथराम अस्पताल के आगे चौराहे पर खत्म होने के लिए इसके सहित दोनों ब्रिजों से ट्रैफिक निर्बाध गति से चले। यही कारण है कि यह नया ब्रिज सिक्स लेन के आधार पर शुरू किया गया। पहले इसका टेंडर केडी कंस्ट्रक्शन के नाम से हुआ लेकिन 2010 में यह कंपनी ब्लैक लिस्टेट घोषित होने के बाद ठेका सोम प्रोजेक्ट को दिया गया। अक्टूबर 2012 में ब्रिज का निर्माण शुरू हुआ और इसे दो साल में यानी अक्टूबर 2014 में पूरा करना है।
खास बात यह कि जब भी ब्रिज बनने की शुरुआत होती है तो उसका सही स्वरूप तब पता चलता है जब स्ट्रक्चर के साथ करीब 70 फीसदी से ज्यादा काम हो जाए। इस ब्रिज के साथ भी ऐसी ही स्थिति हुई लेकिन जब इसका स्वरूप सामने आया तो यह ब्रिज के नाम ही मजाक ही बनता दिख रहा है। दरअसल इस ब्रिज की चौड़ाई 30 मीटर है जबकि लंबाई 40 मीटर। इसके साथ ही इसके दोनों ओर 100-100 मीटर जमीन दी गई है जिससे ब्रिज की चौड़ाई काफी है लेकिन इसके मध्य आते ही निगम की सारी कारगुजारियां सामने आ जाती है।
यह है मामला
दरअसल सालों पुराने माणिकबाग नाले पर इस नए ब्रिज का मध्य हिस्सा बना है। यहां कई दुकानें व अन्य निर्माण थे जो तो हटा दिए गए लेकिन पांच दुकानों वाले एक भवन को हटाने में निगम को पसीने आ गए। इस भवन में सुरभि मेडिकोज की दो दुकानें हैं जबकि पास की अन्य दुकानें इसी मेडिकल के संचालक ने किराए से दी थी। चूंकि पूरा भवन ही बीचोबीच है इसलिए निगम ने इसे हटाने के लिए कोशिश की। इसमें पता चला कि उक्त भवन की रजिस्ट्री है। इस पर मशक्कत के बाद निगम ने इसमें से दो दुकानें तोड़ी जबकि तीन को वहीं (ब्रिज के मध्य) रहने दिया। इनमें दो दुकानों में अभी भी सुरभि मेडिकोज जबकि एक दुकान (किराए से) चोइथराम अस्पताल कर्मचारी साख संस्था को किराए से दी है।
इन तीन दुकानों के लिए ब्रिज को इसके पास से संकरा कर दिया। यानी इन दुकानों के आगे आने-जाने के लिए तीन फीट की जगह और छोड़कर ब्रिज आगे बढ़ा दिया गया। यानी अब ब्रिज सीधा नहीं होकर इन दुकानों को बचाते हुए काफी संकरा हो गया है। खास बात यह कि ब्रिज की ऊंचाई के हिसाब से उक्त दुकानें काफी नीचे चली गई है।
बहरहाल, निगम की मेहरबानी यह खत्म नहीं होती। इन दुकानों की लाइन में ही 500 मीटर आगे ब्लू मून पैलेस, राज टॉउनशिप, राज कॉम्प्लेक्स व एक अन्य भवन हैं। इन भवनों में 200 से ज्यादा दुकानें व फ्लैट हैं। इन सभी को न सिर्फ बचाया गया बल्कि इनके आगे पार्किंग को जगह देते हुए ब्रिज मार्ग को और भी संकरा कर दिया। मामले में निगम अधिकारियों का एक ही तर्क रहा कि वे हट नहीं रहे या उनके पास रजिस्ट्रियां हैं, ऐसे बयान देकर ब्रिज का 80 फीसदी से ज्यादा काम पूरा कर लिया गया। अब ब्रिज निर्माण की अवधि अक्टूबर 2014 को खत्म होने को है लेकिन संकेत हैं कि दिसंबर तक यह पूरा हो जाएगा। विडम्बना यह कि महत्वाकांक्षी यह प्रोजेक्ट भी ऐसी करतूतों के कारण न सिर्फ संकरा हुआ बल्कि लंबे समय तक लोग ऐसी विसंगतिपूर्ण बने ब्रिज से गुजरेंगे।

हम कहीं गलत नहीं
हमारी यहां 20 साल से ज्यादा समय से दुकानें हैं। पूरी रोजीरोजी इस मेडिकल की दुकान पर निर्भर है। भवन का निर्माण वैध है तथा इसकी रजिस्ट्री है। ब्रिज कोई संकरा नहीं हुआ बल्कि सिर्फ 60 सेमी का फर्क पड़ा और ब्रिज हल्का सा मोड़ा गया। हम कहीं भी गलत नहीं है।
रमेश नागवानी
संचालक (सुरभि मेडिकोज)

बिल्डर का काम दूर से दिखता है, छिपाने से बचें..

के्रडाई के वीसीईएस सेमीनार में सर्विस टैक्स आयुक्त ने दी बिल्डरों को हिदायत 
इंदौर. चीफ रिपोर्टर । 
बिल्डर्स एंड डेवलपर्स जो बिल्डिंग या टाउनशीप बनाते है उसे वे छिपा नहीं सकते। जो किया है, दिखेगा। फिर छिपाने की कोशिश करके कितने दिन सर्विस टैक्स बचा पाओगे। अच्छा यही है कि 10 मई 2013 से लागू हुई वॉलेंटरी कम्प्लाइअन्स एन्करिज्मन्ट स्कीम (वीसीईएस) का फायदा उठाओ और अपना बकाया सर्विस टैक्स डिक्लेयर कर दो। इससे सर्विस टैक्स पर न 18 प्रतिशत ब्याज भरने की चिंता रहेगी, न टैक्स के समानांतर पेनल्टी की। मंगलवार को होटल रेडीसन में क्रेडाई द्वारा आयोजित एक सेमीनार में यह जानकारी कस्टम, सेंट्रल एक्साइज एंड सर्विस टैक्स आयुक्त जयप्रकाश ने बिल्डर्स एंड डेवलपर्स को दी।
मंंगलवार शाम संपन्न हुए सेमीनार में आयुक्त जयप्रकाश ने बताया कि वीसीईएस 31 दिसंबर तक है। हमारे पास दिन भी कम है और स्टॉफ भी। हम कहीं जा नहीं सकते। इसका फायदा उठाओ और अपने डिक्लेरेशन फाइल कर दो। कोई भी कैसे भी स्कीम का फायदा उठा सकता है। हम नाम पते को छोड़कर आपसे कुछ नहीं पूछेंगे। बस अपने डिक्लेरेशन के साथ कोई एक सपोर्टिंग डॉक्यूमेंट जरूर दें जिसके आधार पर आपने डिक्लेरेशन फाइल किया। उन्होंने बताया कि डिक्लेरेशन में यदि कोई संशय है तो उसकी जांच एक साल में आयुक्त के आदेश पर हो सकती है। आंकड़ों में भारी हेरफेर से बचें। डिक्लेरेशन फाइल होते ही सात दिन में डिस्चार्ज एक्नॉलेजमेंट जारी कर देंगे। इसका बड़ा फायदा यह भी है कि वीसीईएस में हुए डिक्लेरेशन कहीं भी किसी कोर्ट में नहीं खोला जा सकता। सेमीनार में एडिशनल कमिश्नर आर.के.वर्मा, वीरेंद्र जैन, डिप्टी कमिश्नर स्मृति शरन, सीए अरविंदसिंह चावला और क्रेडाई के अध्यक्ष गोपाल गोयल भी मौजूद थे।
सवाल..
1 - वीसीईएस का फायदा कौन उठा सकता है..?
जवाब :- 1 अक्टूबर 2005 से लेकर 31 दिसंबर 2012 के बीच किसी भी वित्त वर्ष के दौरान सर्विस टैक्स का भुगतान नहीं किया है, वे इस योजना का लाभ उठा सकते हैं। बशर्ते उनके खिलाफ इस दौरान कोई विभागीय जांच या नोटिस या अन्य कार्यवाही प्रचलित न हो।
2 - डिक्लेरेशन के बाद भुगतान कैसे करना है?
जवाब :- वीसीईएस के तहत टैक्स देने वाले को बकाए टैक्स की कम से कम आधी रकम 31 दिसंबर तक भरनी है। बाकी 30 जून 2014 तक। 30 जून तक भी जो व्यक्ति आधी रकम नहीं भर पाता है उसके पास 31 दिसंबर 2014 तक का मौका और होगा। हालांकि इसमें ब्याज देना होगा।
3 - 31 दिसंबर के बाद क्या होगा?
जवाब :- 31 दिसंबर तो डिफाल्टर टैक्स जमा नहीं करते उनकी गिरफ्तारी के अलावा और कोई विकल्प नहीं बचेगा।
4 -फाइल किए गए डिक्लेरेशन पर बाद में विभाग हमारी घेराबंदी तो नहीं करेगा?
जवाब :- बिल्कुल नहीं। 

मतदान खत्म, कयासी किस्से शुरू

जरूरी नहीं ज्यादा वोटिंग भाजपा के लिए
देपालपुर, सांवेर और इंदौर-3 में हर बार टूटा यही भ्रम 
इंदौर. चीफ रिपोर्टर ।
विधानसभा चुनाव 2013 संपन्न हो चुके हैं। उम्मीद्वारों का भाग स्ट्रांग रूम में बंद ईवीएम मशीन में कैद है। किस विधानसभा से कौन जीतेगा? और सरकार किसकी बनेगी? जैसे सवालों को लेकर न सिर्फ उम्मीद्वार बल्कि शहर की आवाम भी कयासी किस्से गढ़ रही है। चुनाव में हुए रिकार्डतोड़ मतदान को कांग्रेस समर्थक परिवर्तन की लहर बता रहे हैं वहीं भाजपा समर्थक देपालपुर-सांवेर जैसी सीटों पर अपनी जीत को लेकर आश्वस्त हैं।
चुनाव संपन्न होते हुए भाजपा-कांग्रेस सहित तमाम दल विधानसभावार हुए मतदान के प्रतिशत का आंकड़ा लेकर समीक्षा करने बैठ गए हैं। हालांकि बीते चुनावों के परिणामों की समीक्षा करें तो पता चलता है कि वोटिंग कम हो या ज्यादा इससे पार्टी विशेष को फायदा मिलता है यह कोरा कयास है। इसका बड़ा उदाहरण इंदौर का देपालपुर है जहां 2003 में 73.94 प्रतिशत वोटिंग हुई। भाजपा के मनोज पटेल ने कांग्रेस के सत्यनारायण पटेल को 6927 वोटों से मात दी थी 2008 में 79.93 प्रतिशत मतदान के बावजूद सत्तू ने मनोज को 9491 मतों से मात देकर हिसाब चुकता कर दिया। सांवेर की कहानी भी कुछ यही कहती है। यहां 2003 में 70.01 मतदान हुआ और राजेंद्र मालवीय को 19637 वोटों से मात देकर बाजी मारी प्रकाश सोनकर ने। 2008 में हुए चुनाव में 73.66 प्रतिशत लोगों ने मतदान किया लेकिन इस बार प्रकाश सोनकर की पत्नी निशा को शिकस्त दी कांग्रेस के तुलसीराम सिलावट ने।
इधर, इंदौर-3 में 2003 के चुनाव में शहर में सबसे ज्यादा वोट 71.80 प्रतिशत हुआ। बाजी मारी कांग्रेस के अश्विन जोशी ने। उन्होंने भाजपा के राजेंद्र शुक्ला को 4692 वोटों से हराया। 2008 के चुनाव में 65.95 प्रतिशत ही मतदान हुआ। इस बार भी जोशी जीते। 402 वोट से हारे गोपीकृष्ण नेमा। इस बार 68.88 प्रतिशत मतदान हुआ है। ऐसे में कांग्रेसी जहां अपनी जीत के लिए आश्वस्त हैं वहीं भाजपा को पूरी उम्मीद है बीते चुनाव में कम हुआ जीत का फासला इंदौर-3 में इस बार उषा ठाकुर को मौका दे सकता है।
इंदौर-5 में 2003 में 64.28 और 2008 में 62.65 प्रतिशत मतदान हुआ। दोनों ही बार भाजपा के महेंद्र हार्डिया जीते। शोभा ठाकुर को हराया। 2003 में 22998 और 2008 में 5684 वोटों से। महू में 2003 में 73.90 के बाद कांग्रेस के अंतरसिंह दरबार ने भेरूलाल पाटीदार को 3199 वोटों से हराया जबकि 77.24 प्रतिशत मतदान के बाद कैलाश विजयवर्गीय ने दरकार को 9791 वोटों से मात दी।
भाजपा की गढ़ यह विधानसभाएं
इंदौर-2 से आखिरी बार 1990 में कांग्रेस की ओर से सुरेश सेठ जीते थे। इसके बाद 1993 से लेकर 2003 तक कैलाश विजयवर्गीय ने कांग्रेस को कोई मौका नहीं दिया। 2008 में कैलाश के जोड़ीदार रमेश मेंदोला ने 1990 के कांग्रेसी हीरो सेठ को 39937 वोटों से हराया। 2013 के चुनाव में मेंदोला का लक्ष्य जीत के इस अंतर को 50 हजार वोटों के पार ले जाने का रहा।
यही हाल इंदौर-4 का है जहां 1990 में विजयवर्गीय विजय हुए थे। इसके बाद से 2008 के चुनाव तक भाजपा को अच्छे से अच्छे दिग्गज यहां पटखनी नहीं दे पाए। हालात यह था कि इंदौर-2 की तरह यहां भी कांग्रेस को उम्मीद्वार नहीं मिलते। हालांकि पार्टी को इस बार सहज-सरल सुरेश मिंडा से उम्मीद है लेकिन मैदानी सर्वे उनकी उम्मीद से मेल नहीं खाते।
भाजपा का नया गढ़ होगा इंदौर-1 या इंदौर-5
इंदौर-1 और इंदौर-5 में बीते दो चुनाव से भाजपा का कब्जा है। 2008 में इंदौर-1 से कांग्रेस के रामलाल यादव और संजय शुक्ला किस्मत आजमाकर घर बैठ चुके हैं। 2013 में कांग्रेस केंडिडेट को लेकर कन्फ्यूज रही। इंदौर-5 में बीते दो चुनाव शोभा ओझा हारी। इस बार पंकज संघवी से उम्मीद् जताई जा रही है। यदि इनमें से एक भी सीट पर भाजपा काबिज होकर अपना नया गढ़ बना लेगी।

इंदौर जिला
2013 2008 2003
इंदौर-1 67.08 61.11 63.61
इंदौर-2 64.33 62.43 66.23
इंदौर-3 68.88 65.95 71.80
इंदौर-4 66.97 64.84 65.26
इंदौर-5 64.16 62.65 64.28
महू 70.04 77.24 73.90
राऊ 71.65 69.56 --.--
देपालपुर 78.59 79.93 73.94
सांवेर 72.21 73.66 70.01

Monday, June 29, 2015

yaswant club me compniyon ke farji sadasya

- 5 दर्जन कंपनियों  के खंगाले जा रहे रिकॉर्ड
- कई कंपनियों के बनाए गए डॉयरेक्टर ही नदारद
इंदौर, दबंग रिपोर्टर । 
नई सदस्यता पर लगे प्रतिबंध के बीच अपने बच्चों को सदस्यता देने का रास्ता खोजने में जूटे यशवंत क्लब प्रबंधन ने ऐसे सदस्यों की सूची बनाना शुरू कर दी है जो अर्से से गायब हैं। या जिन्होंने फर्जी दस्तावेजों के आधार पर सदस्यता प्राप्त की थी। आंकड़ों के लिहाज से बात करें तो ऐसे सदस्यों की संख्या 50 से ज्यादा है।
22 जून को क्लब की विशेष आमसभा होना है। मुख्य मुद्दा है प्रतिबंध के बीच नई सदस्यता के लिए रास्ता निकालना। इसके लिए सदस्यों ने जहां अपने बच्चों को सदस्यता देने का मुद्दा आगे बढ़ाया है वहीं प्रबधन कमेटी ने भी उन सदस्यों के दस्तावेज खंगालना शुरू कर दिए हैं जो अर्से से क्लब नहीं आए। पता चला, ऐसे भी कई सदस्य हैं जिन्होंने फर्जी दस्तावेजों से सदस्यता ली। किसी ने स्वयं को कंपनी का डायरेक्टर बताकर सदस्यता ली थी तो कोई था डिस्ट्रीब्यूटर या सीएंडएफ लेकिन एजेंसी को कंपनी बताकर स्वयं को डायरेक्टर बताता रहा।
कई कंपनियों के डायरेक्टर लापता तो कई कंपनियां ही...
छानबीन के दौरान यह भी सामने आया कि कुछ कंपनियां ऐसी है जिनके जिस डायरेक्टर को सदस्यता दी गई  थी वह वर्षों पहले ही इंदौर छोड़ चुका है। कुछ ऐसे हैं जिनकी कंपनियां बंद हुए अरसा हो चुका है। कुछ ऐसे भी हैं जिन्होंने एजेंसियों को ही कंपनियां बताकर स्वयं को डायरेक्टर साबित करके सदस्यता ली थी। कुछ कंपनियां ऐसी भी हैं जिनके एक से ज्यादा डायरेक्टर को सदस्यता दी गई थी। कई की तो क्लब सविंधान के फार्म 16 और 32 में जानकारी ही अब तक उपलब्ध नहीं हुई।
कैसे मिली थी इंट्री...
छानबीन के दौरान फर्जी सदस्यता के जब प्रमाण सामने आ रहे हैं तो सवाल यह भी उठने लगा है कि उस वक्त यह सब चीजें क्यों नहीं देखी गई। इस पर सदस्यों का कहना है कि वजनदार सदस्यों ने अपनी पसंद के लोगों को सिफारिश करके सदस्य बनवाया था। इतना ही नहीं उनके दस्तावेजों की तस्दीक तक नहीं करने दी गई। चार साल पहले भी यह मुद्दा गरमा चुका है।
ऐसे चला मामला
- शुरूआत में कंपनियों से आवेदन आए उनका छानबीन ही नहीं की गई।
- कई कंपनियों के सदस्य डॉयरेक्ट नहीं होकर, डिस्ट्रीब्यूटर थे। इसके बाद भी सदस्य दी गई।
- पुरानी कंपनी में छोडऩे के बाद भी उसी पद से जारी रही क्लब की सदस्यता।
- कंपनियों के नाम पर मिली क्लब में एंट्री में पसंदीदा के लोग ज्यादा।
मैंने सिर्फ आवेदन जमा करने के लिए कहा है...
मैंने महज कंपनियों के नियमनुसार आवेदन करने के लिए कहा है। आवेदन आने के बाद ही सदस्यता पर निर्णय लिया जाएगा। क्लब में ऐसे 50 कंपनियां है, जिसके सदस्य है। फिर भी इस बार क्लब संविधान के आधार पर सख्त है।
सुनील बजाज, क्लब सचिव

भास्कर की फोटोग्राफी तस्वीरों के साथ थमाया नोटिस db


- काम रुकवाया
- कहा ईंट भी जुड़ी तो नेस्तनाबूद हो जाएगी इमारत
- नए सिरे से मंजूरी की कवायद शुरू
इंदौर. चीफ रिपोर्टर ।
देर से ही सही नगर निगम ने दैनिक भास्कर परिसर में बिना इजाजत बन रही चार मंजिला इमारत का काम रूकवा दिया है। निर्माणाधीन इमारत की फोटोग्राफी कराकर नगर निगम नोटिस थमाकर भास्कर प्रबंधन को चेता दिया है कि पर्मिशन लिए बिना अब एक ईंट भी यहां लगी तो पूरी इमारत नेस्तनाबूद कर दी जाएगी। घबराए भास्कर प्रबंधन ने नक्शा मंजूरी के लिए नए सिरे से आवेदन शुरू कर दिया है।
अवैध निर्माण के खिलाफ लगातार अभियान चलाता आए  दैनिक भास्कर समूह ने बिना मंजूरी लिए कैसे चार मंजिला इमारत का काम शुरू कर दिया और कैसे अखबार के दबाव में अधिकारी अवैध निर्माण को नजरअंदाज करके बैठ गए? इसका खुलासा दबंग दुनिया ने 30 मार्च 2013 को 'भास्कर कॉम्पलेक्स 100 प्रतिशत अवैधÓ और 2 अपै्रल 2013 को 'नक्शे को ना, निर्माण को हांÓ शीर्षक से प्रकाशित समाचार में किया था। इसके बाद नगर निगम के अधिकारियों ने बिल्डिंग का काम रुकवा दिया है। फोटोग्राफी करवाई। फोटो के साथ नोटिस दिया। कहा कि अब यदि इससे आगे बिना अनुमति लिए एक ईंट भी लगाई तो पूरा निर्माण ध्वस्त कर देंगे।
हालांकि इस पूरे मामले में नगर निगम के शीर्षस्थ अधिकारियों की भूमिका पर भी अंगुली उठ रही है जिन्होंने न सिर्फ बिना मंजूरी के बन रही इमारत को नजरअंदाज किया। बल्कि अपना हाथ बचाने के लिए नक्शा आवेदन निरस्त करके काम रोकने या अवैध निर्माण तोडऩे से परहेज करते रहे। अब भी यही कहा जा रहा है कि आगे निर्माण किया तो कार्रवाई होगी? यानी जो निर्माण हो चुका है उसे निगम क्लीनचिट दे चुका है।
एडवोकेट अनिल नायडू ने बताया कि नियमानुसार निगम से नक्शा मंजूर कराए बिना बाउंड्रीवॉल तक नहीं बन सकती। बावजूद इसके भास्कर के अवैध निर्माण को न महापौर तोड़ पाए। न निगमायुक्त। यह नगर निगम का दोहरा रवैया है। नगर निगम यदि निर्माण को अवैध मानता है तो रिमुवल की कार्रवाई करे। नहीं तो क्लीन चिट दे दे।
मंजूरी टलती रही और काम चलता रहा...
स्कीम-54 (पीयू-3) स्थित प्लॉट नं. 4 का है। करीब 44 हजार वर्गफीट में फैले इस प्लॉट पर दैनिक भास्कर बना हुआ है। भास्कर प्रबंधन इसी प्लॉट के 4000 वर्गफीट हिस्से में जी+3 इमारत बना रहा है। बेसमेंट, ग्राउंड और पहली मंजिल की छत डल चुकी है। दूसरी मंजिल के बीम कॉलम भरे जा चुके हैं। उधर, बात मंजूरी की करें तो वह भास्कर प्रबंधन को निगम की तरफ से प्राप्त नहीं हुई है। उलटा, निगम फरवरी 2013 और मार्च 2013 में नक्शा आवेदन नामंजूर करके भास्कर प्रबंधन को अनपेक्षित झटका दे चुका है। हालांकि इससे निर्माण पर कोई असर नहीं पड़ा। बिना किसी मंजूरी के निर्माण बेधड़क चलता रहा।
इससे पहले 1996-97 में भी किया था अवैध निर्माण...
बात सिर्फ निर्माणाधीन इमारत की नहीं है, मौजूदा इमारत की नींव भी मनमानी के पत्थरों पर रखी गई है। निर्माण 1996-97 में हुआ था। उस वक्त भास्कर प्रबंधन ने जी+1 भवन निर्माण की मंजूरी ली थी। निर्माण तकरीबन ११,700 वर्गफीट (मूल इमारत) में था। मंजूरी के बाद कुल निर्माण २३,४०० वर्गफीट होना था जबकि हुआ ३५,१०० वर्गफीट से ज्यादा। भवन के जिस दूसरी मंजिल में बीटीवी का ऑफिस में उसकी अनुमति नगर निगम ने आज दिन तक नहीं दी। 2007-08 में पहली मंजिल पर तकरीबन तीन हजार वर्गफीट का निर्माण भी मनमाने ढंग से हुआ।

‘शंकर’ की संस्कृति से सहमे ‘कृष्ण’

- अभिनव कला समाज का हॉल चार साल से खाली नहीं करा पाया निगम 
२००९ में गैरकानूनी तरीके से दे दिया था हॉल किराए पर
- 2010 से जारी है पत्राचार
इंदौर. विनोद शर्मा । 
अभिनव कला समाज से किराए पर लिया जो हॉल भाजपा नगर अध्यक्ष शंकर लालवानी की संस्था लोक संस्कृति मंच को किराए पर दिया था नगर निगम उसे चार साल में खाली नहीं करा पाया। महापौर परिषद हॉल खाली कराने का निर्णय दे चुकी है जबकि 2010 से अब तक कार्रवाई के नाम पर जिम्मेदार पत्र लिखकर सिर्फ टाइम पास कर रहे हैं। उधर, अभिनव कला समाज के संचालक नगर निगम के रवैये से जबरदस्त नाराज हैं। वे सीधे-सीधे निगम पर अमानत में खयानत का आरोप मढ़ते हुए कहते हैं कि निगम लोक संस्कृति मंच से हॉल खाली कराना ही नहीं चाहता है। 
गांधीहॉल परिसर में अभिनव कला समाज की बिल्डिंग है। इसके तलघर में तकरीबन 3000 वर्गफीट का एक हॉल है जिसे महापौर रहते डॉ.उमाशशि शर्मा और उनके एमआईसी सदस्यों ने 27 अक्टूबर 2009 को प्रस्ताव (क्र. 2390) पास करके लोक संस्कृति मंच को किराए पर दे दिया था। इस पर अभिनव कला समाज ने आपत्ति ली। आपत्ति और शिकवा-शिकायत के बाद 7 मई 2010 को महापौर कृष्णमुरारी मोघे व उनके एमआईसी सदस्यों ने 2009 का प्रस्ताव रद्द कर दिया। इसके लिए निगमायुक्त द्वारा 24 अपै्रल 2010 और 28 अपै्रल 2010 को लिखे पत्र (क्र. 191 और 229) हवाला देते हुए कहा गया कि हॉल खाली कराकर उपयोग निगम हित में सुनिश्चित करें। इसके बाद से आज दिन तक नगर निगम कार्रवाई के नाम पर सिर्फ और सिर्फ पत्र ही लिख रहा है। हॉल खाली नहीं करा पाया। 
पद का कमाल, आचार सहिता में किया धमाल... 
नगर निगम में सभापति रहते शंकर लालवानी ने जिस वक्त हॉल के लिए आवेदन किया था उस वक्त तक नगरीय निकाय चुनाव-2009 की तैयारियां शुरू हो चुकी थी। मतदन 11 दिसंबर 2009 को हुआ था। चुनाव से 45 दिन पहले आचार संहित लग जाती है। हॉल किराए पर देने का निर्णय 27 अक्टूबर 2009 को लिया गया। यही वह दिन था जिस दिन आचार संहिता लगी। 
लाइब्रेरी के लिए लिया था लालच के लिए दे दिया.. 
प्रशासक के संकल्प क्रं. ९६ के तहत नगर निगम ने ६ मई 197८ को लाइब्रेरी के लिए इस हॉल को किराए पर लिया था। किराया तय हुआ था 2270 रुपए। 1990-92 तक लाइब्रेरी चली भी। बाद में नगर निगम का जोनल कार्यालय बना दिया। पालिका प्लाजा बनने के बाद जोनल कार्यालय वहां शिफ्ट हो गया। बाद में हॉल में हॉल को निगम स्टोर रूम की तरह इस्तेमाल कर रहा था। 2009 में हॉल लोक संस्कृति मंच को दे दिया जो निजी संस्था है। 
असंवैधानिक है निगम का निर्णय...
अभिनव कला समाज के प्रधानमंत्री बसंत कुमार पांड्या कई बार निगम को पत्र लिख चुके हैं। हर बार लिखा संस्था सार्वजनिक है जिसका मकसद कला साहित्य संस्कृति का विस्तार है इसीलिए अनुबंध किया। अनुबंध के मुताबिक हॉल का उपयोग लाइब्रेरी के रूप में होना था। अनुबंध का उल्लंघन करते हुए निगम ने पहले जोनल कार्यालय शुरू किया, बाद में बालेबाले हॉल लोक संस्कृति मंच को दे दिया। संस्था ने राजा मानसिंह तोमर संगीता एवं कला विश्वविद्यालय, ग्वालियर से संबद्धता प्राप्त संगीता कॉलेज की स्थापना की है। शर्तों के उल्लंघन के बाद संस्था-निगम के बीच का अनुबंध स्वत: निरस्त हो चुका है। 2009 का निर्णय असंवैधानिक है। हॉल संस्था का है। हमें कॉलेज के लिए हॉल की जरूरत है। इसीलिए निगम लोक संस्कृति मंच से हॉल खाली कराकर दे। 
कब-कब लिखे पत्र...
तारीख पत्र क्र.
8 मई 2010 380 
6 अगस्त 2011 ७८७
27 अगस्त 2011 ८३९
26 सितंबर 2011 1145
24 दिसंबर 2011 1630 
22 फरवरी 2012 1893
20 सितंबर 2012 ८७९-८०
18 दिसंबर 2012 १७८९




कृषि भूमि बचाएगा वर्टिकल विकास

2021 के मास्टर प्लान लागू होने के बाद पांच साल में ही 20 हजार हेक्टेयर पर फैली कॉलोनियां, 80 लाख क्विंटल अनाज के उत्पादन में कमी
 इंदौर. चीफ रिपोर्टर । 
बरसों पुराने और विकास की कई श्रेणियों में पीछे हो चुके भूमि विकास अधिनियम में हुए बदलाव पर मंगलवार को मिलीजूली प्रतिक्रिया रही। कुछ ने वर्टिकल विकास की अवधारणों को कृषि भूमि के दुरुपयोग को रोकने के लिए सकारात्मक पहल बताया तो कुछ ने बिल्डरों के पक्ष में सरकारी पैकेज। वहीं शहर के चिंतकों ने कहा कि 10 माले की इमारतों को हाईराइज से मुक्ति देने के बाद सरकार को यह भी सुनिश्चत कर देना चाहिए कि इमारत मापदंडों के अनुरूप ही बनेगी। नहीं बनती तो जिम्मेदार कौन होगा? जानकार कहते हैं कि जमीन व संसाधनों के संकट से जुझ रहे इंदौर के लिए वर्टिकल विकास जरूरत बन चुका है।
अब तक 30 मीटर ऊंची (10 मंजिला) इमारतों की मंजूरी हाईराइज कमेटी में होती थी जिसकी अध्यक्षता संभागायुक्त करते हैं कमेटी में नगर निगम, टीएंडसीपी, जिला प्रशासन, फायर ब्रिगेड, यातायात,  मप्र प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड सहित उन तमाम महकमों के अधिकारी मौजूद रहते थे जिनकी अनुमति थी। संशोधन के बाद अब 30 मीटर तक की इमारत को नगर निगम के अधिकारी ही अपने स्तर पर ही मंजूरी दे सकेंगे। संशोधन के मुताबिक 24 मीटर चौड़ी सड़क पर 20 हजार वर्गफीट के प्लॉट पर 2 प्रतिशत एफएआर के साथ 30 मीटर ऊंची इमारत बनाई जा सकती है। व्यावसायिक इमारत का निर्माण कुल प्लॉट एरिया के 40 प्रतिशत भाग पर ही हो सकेगा। संशोधन के अनुसार जिन भवनो की ऊंचाई 12.5 मीटर या उससे ज्यादा होगी उनके लिए सभी विभागों की अनुमति नेशनल बिल्डिंग कोड के अनुसार लेना होगी। फायर ब्रिगेड की मंजूरी जरूरी है। सभी ऊंचे भवनों के लिए स्थल अनापत्ति समिति से अनापत्ति जरूरी है। इसके बाद ही टीएंडसीपी से ले-आउट पास होगा।
वर्टिकल विकास क्यों जरूरी...
- इंदौर की नगर निगम सीमा 130 वर्गकिलोमीटर (13,000 हेक्टेयर) है जबकि 2021 की विकास रूपरेखा 50 हजार हेक्टेयर में फैली है। बेहिसाब डेवलपमेंट के कारण 37 हजार हेक्टेयर नए क्षेत्र में 20 हजार हेक्टेयर ऐसा है जहां कॉलोनियां, रो-हाउसेस विकसित हुए हैं लेकिन बसाहट नहीं हुई।
- यह 20 हजार हेक्टेयर जमीन कृषि भूमि थी जहां अधूरे कॉलोनीकरण के कारण 80 लाख क्वींटल के करीब कृषि उत्पादन कम हुआ है। यह आंकड़ा सिर्फ एक सीजन की खेती का है।
- वर्टिकल विकास से 100 एकड़ में बसने वाली आबादी को 10 से 15 एकड़ जमीन पर बसाया ज सकता है। इससे 85 से 90 एकड़ जमीन बचती है।
सवाल क्यों उठे...
- बिल्डरों के सुझाव पर हुआ संशोधन।
- आम आदमी या जनप्रतिनिधि से कोई सुझाव नहीं लिया।
- हाईराइज कमेटी में आने वाली कुल निर्माण अनुमतियों में 85 फीसदी 30 मीटर तक की होती हैं। इन्हें मुक्ति देकर हाईराइज की उपयोगिता खत्म की।









इन इमारतों की मंजूरी के लिए हाईराइज की जरूरत नहीं.
रोड चौड़ाई(मी) प्लॉट एरिया(वर्गफीट) निर्माण की ऊंचाई (मी) एफएआर (त्न) एमओएस (आगे) मी. एमओएस (पीछे) मी.
12 १०,००० १८ 1.50 7.5 6
18 15,000 24 1.75 9 6
24 20,000 30 2.00 12 7.5
(इनमें 30 मीटर की ऊंचाई वाली 10 मंजिला इमारतें ही ऐसी हैं जिन्हें हाईराइज कमेटी के झंझट से मुक्त करके नगर निगम को नक्शा स्वीकृति के अधिकार सौंपे गए हैं।)
इन इमारतों की मंजूरी हाईराइज कमेटी में होगी...
रोड चौड़ाई(मी) प्लॉट एरिया(वर्गफीट) निर्माण की ऊंचाई (मी) एफएआर (त्न) एमओएस (आगे) मी. मओएस (पीछे) मी.
30   25,000 45 2.25 15 7.5
36 ३०,००० ६० २.५० १८
४५ 35,000 75 2.75 21 9
60 40,000 90 3.00 24 10
75 45,000 90 से अधिक 3.00 30 12

देवास-बायपास पर अवैध टोल वसूली...

मुख्यमंत्री के आदेश के बावजूद नहीं हुई जांच
इंदौर. चीफ रिपोर्टर ।
देवास-भोपाल रोड पर चल रही टोल वसूली पर अधिकारी मेहरबान है। शायद इसीलिए मुख्यमंत्री के आदेश के बावजूद वसूली के खिलाफ जांच शुरू नहीं हुई। जांच के आदेश इंदौर निवासी ऋृषिकांत श्रीवास्तव की शिकायत पर हुए थे। श्रीवास्तव का आरोप था कि कंपनी ने अनुबंध कि विपरीत सड़क का काम पूरा होने से छह महीने पहले ही टोल वसूली शुरू कर दी थी जो कि गैरकानूनी है।
143.70 किलोमीटर लंबी इस रोड के लिए अनुबंध 2006-07 में हुआ था। जनवरी 2007 में हुए अनुबंध के अनुसार सड़क बनाने वाली कंपनी काम पूरा होने के बाद ही टोल वसूली शुरू कर सकती है। हुआ उलटा, सड़क बनती रही और कंपनी ने टोल वसूली शुरू कर दी। श्रीवास्तव का आरोप है कि वसूली सड़क पूरी होने से छह महीने पहले ही शुरू हो चुकी थी। आरटीआई में निकाले दस्तावेजों के आधार पर हुई श्रीवास्तव की शिकायत पर मुख्यमंत्री ने जांच के आदेश दिए थे। छह महीने हो चुके हैं। जांच आज तक नहीं हुई। कंपनी ने पहली टोल प्लाजा फंदा, दूसरी अमलाह और तीसरी भौरासा के पास शुरू की थी।
लागत के नाम पर भी लूट...
बीओटी के तहत बनी इस सड़क की जनवरी 2007 में लागत 480 करोड़ आंकी गई थी। इसमें 81 करोड़ रुपए सरकारी सब्सिडी थी। एमएसके प्रोजेक्ट, चेतक इंटरप्राइजेस और बीएसबीके ने टेंडर डाले थे जो 25 जनवरी 2007 को खुलेे। प्रोजेक्ट जब पूरा हुआ तो उसकी लागत 81 करोड़ की सब्सिडी सहित 640 करोड़ रुपए बताई गई। अंतर था 160 करोड़ का। अंतर को लेकर भी शिकायतें हुई हैं। शुरू में सड़क की लंबाई १४३ किलोमीटर थी, पूरी होने के बाद १४०.७० किलोमीटर बची।
पहली टोल प्लाजा : ३१.६० किलोमीटर (फंदा)
कार १५
लाइट व्हीकल ३5
बस ७३
ट्रक ८७
मल्टी एक्सल १७४
दूसरी टोल प्लाजा : ४०.०० किलोमीटर (अमलाह)
कार १९
लाइट व्हीकल ४४
बस ९२
ट्रक १११
मल्टी एक्सल २२०
तीसरी टोल प्लाजा :  ६९.१९० कलोमीटर (भौरासा)
कार ३२
लाइट व्हीकल ७७
बस १५९
ट्रक १९१
मल्टी एक्सल ३८१

'शक्करÓ से परहेज

बरलाई शक्कर कारखाना : तीन बार बुलाए टेंडर, किसी ने नहीं ली रूची 
- चुकाना है 20 करोड़ की देनदारी
- सहकारिता विभाग ने मानी हार, सरकार के पाले में छोड़ी गेंद
इंदौर. विनोद शर्मा । 
कर्मचारियों को वर्षों से वेतन नहीं मिला...। किसानों को गन्ने की कीमत आज तक नहीं मिली...। बकाया बिल के चक्कर में बिजली कंपनी कनेक्शन काट चुकी है...। अलग-अलग आशान्वित लेनदार आज नहीं तो कल पैसा मिल जाएगा, इसी उम्मीद में बैठे हैं। उधर, मशीन बेचकर सबका बकाया चुकाता करने की कोशिश की तो खरीदार नहीं मिले। यह कड़वी सच्चाई है उस बरलाई शक्कर कारखाने की जो कभी मालवा के लोगों के जीवन में मिठास घोलने के लिए जाना जाता था। उधर, सहकारिता विभाग की तमाम कार्रवाइयों से दूर मप्र पश्चिम क्षेत्र बिजली वितरण कंपनी 19.23 लाख के बकाया बिल की वसूली के लिए तकरीबन 20 करोड़ के इस कारखाने पर कुर्की का तमगा टांग चुकी है।
बरलाई शक्कर कारखाना 2002 से बंद है। 11 वर्षों में कारखाने की देनदारी 20 करोड़ तक पहुंच गई है। इसी देनदारी को चुकाने के लिए वित्त वर्ष 2012-13 में सहकारिता विभाग ने तीन बार विज्ञप्ती निकाली। 7 मार्च 2013 को तीसरी बार बुलाए गए टेंडर की आखिरी तारीख थी लेकिन बीती दो बार की तरह इस बार भी किसी ने 1250 टीसीडी क्षमता  वाले इस पुराने कारखाने की मशीनों में रुचि नहीं ली। तीन बार की नाकामी से नाराज सहकारिता विभाग ने ठान लिया है कि वह कारखाने के भाग्य का फैसला सरकार के हाथ छोड़ देगी। फिर मशीने बिके या न बिके। देनदारों का बकाया कैसे चुकाया जाएगा? इसका फैसला फिर सरकार को करना है।
बिजली के बिल से लेकर गन्ने की कीमत तक चुकाना है..
20 करोड़ रुपए की देनदारी है कारखाने के माथे पर। इसमें 19.23 लाख रुपए बिजली का बिल है जबकि तकरीबन 60 लाख रुपए उस गन्ने की कीमत है जो कारखाना चालू रहते लोगों ने शक्कर बनाने के लिए कारखाने को बेचे थे। सूत्रों की मानें तो यह रकम 1000 से ज्यादा किसानों की बकाया है। कुछ किसान नाउम्मीद होकर अपना पैसा भूल चुके हैं जबकि कुछ ऐसे भी हैं जो अपने हक के लिए सरकारी दफ्तरों की दहलीज के चक्कर काटते-काटते थक चुके हैं।
गेट पर चस्पी है जब्ती-कुर्की की सूचना
मे. मालवा सहकारी शक्कर कारखाना, बरलाई (शिप्रा) इंदौर की संपत्ति को विद्याुत बिल की राशि 19,२३,३७८ रुपए बकाया होने के कारण भू-राजस्व संहिता १९५९ क्र. २० सन १९५९ की धारा २४ की उपधारा (1) की धारा 14(1) के तहत प्रदत्त शक्तियों को प्रयोग पर लाते हुए अधिग्रहित एवं सील करके कुर्क किया जाता है। एतद द्वारा-सर्वसाधारण को सूचित किया जाता है कि उक्त संपत्ति की खरीदी बिक्री अमान्य होगी। यह न्यायालय तहसीलदार (मप्र पश्चिम क्षेत्र विद्युत वितरण कंपनी) का आदेश है जो कारखाने के मुख्य द्वार पर चस्पा नजर आता है।
तीन बार निकाले जा चुके हैं टेंडर...
पहली बार :- जून-जुलाई 2012
दूसरी बार :- अक्टूबर-नवंबर 2012
तीसरी बार :- फरवरी-मार्च 2013
-- तीनों बार विज्ञप्ति स्थानीय समाचार पत्रों के साथ अंतरराज्यीय समाचार-पत्रों में भी प्रकाशित की गई लेकिन बात नहीं बनी।
-- तीनों बार टेंडर डालना तो दूर किसी ने फोन करके यह तक नहीं पूछा कि बरलाई शक्कर कारखाना है कहां?
यह रहती है शर्त...
अक्टूबर 2012 में जारी विज्ञप्ति के अनुसार...। मशीन खरीदी में रुचि रखने वाले लोग संयुक्त आयुक्त कार्यालय सहकारिता विभाग कार्यालय, श्रम शिविर जेल रोड पर संपर्क कर सकते हैं। दूसरी बार निकाली गई इस विज्ञप्ति के मुताबिक 22 नवंबर की शाम 5.30 बजे तक इच्छुक कंपनियों को अपने प्रस्ताव देना थे। 15 लाख रुपए की धरोहर राशि के साथ। 24 नवंबर को अधिकृत विक्रय समिति की बैठक में अंतिम निर्णय लिया जाना था। विक्रय के लिए प्लांट और मशीनरी का आरक्षित मुल्य 15 करोड़ रुपए तय किया गया है। आयुक्त सहकारिता मप्र द्वारा नियुक्त विक्रय समिति निविदा दर को बिना कारण दर्शाए स्वीकृत या निरस्त कर सकती है।
एक नजर में कारखाना
- मालवा सहकारी शक्कर कारखाना
- क्षेत्रफल 99 एकड़
- शुरू हुआ था 1980 में।
- 1.40 लाख वर्गफीट में अलग-अलग निर्माण है। इनमें 18,000 वर्गफीट के 3 शेड, 17250 वर्गफीट का एक शेड, 25425 वर्गफीट का एक शेड, ६५८६, ३७४४ और २२००० वर्गफीट के एक-एक शेड।
- इन शेड्स में कभी अलग-अलग कंपनियां जो कि ग्रामवार गन्ना खरीदती थी उनका गन्ना गोदाम था।
- 60 हजार वर्गफीट में कारखाना और उसकी मशीनरी है।
- 11000 वर्गफीट में दो टैंक बने हैं।
- 2002 से बंद है।

कुपोषण... और महू के भील...

विनोद शर्मा
मप्र की औद्योगिक और आर्थिक राजधानी है इंदौर। इसी इंदौर की तहसील है महू। महू विविधताओं से परिपूर्ण क्षेत्र है। यहां कुछ गांवों में आर्थिक संपन्नता नजर आती है तो कुछ इतने पिछड़े हुए हैं कि उनकी गिनती झाबुआ-अलीराजपुर जैसे आदिवासी जिलों के गांवों की तरह होती है। इन गांवों में कुपोषण की स्थिति ज्यादा खराब न सही लेकिन बहुत ज्यादा अच्छी भी नहीं है। खासकर मानपुर और चोरल से लगे उन  गांवों में जहां भील जाति के लोग रहते हैं। इन लोगों की प्राथमिकताएं अलग है। प्राथमिकता का बच्चों के पोषण आहार से कम ही लेना-देना है।
आंकड़ों के अनुसार महू तीन हिस्सों में बंटा है। एक हिस्सा शहरी है। बाकी दो हिस्से ग्रामीण, मानपुर और चोरल-सिमरोल। शहरी हिस्से में ९० आंगनबाड़ी और उपपोषण केंद्र है। मानपुर में 114 केंद्र है जबकि चोरल-सिमरोल में 107 केंद्र।  इनमें 81 गांव आदिवासी क्षेत्र हैं जहां भील के लोग रहते हैं। प्री-स्कूल में सांझा चुल्हा परियोजना के तहत सामजिक संस्थाएं मध्यान्ह भोजन बनाकर देती है। वहीं इससे बड़ी कक्षाओं में टेक होम राशन के पैकेट दिए जाते हैं। पैकेट की गुणवत्ता तय है। दिक्कत आती है मध्यान्ह भोजन में। जैसा समूह या संस्था की इच्छा, वैसा वहां के बच्चों का मध्यान्ह भोजन। कुछ में अच्छा। कुछ में खराब। नाहरखेड़ी, चोरल और बाईगांव में अच्छे काम हुए।
बाकी में कहीं भोजन 20 बच्चों का बनता है जबकि कक्षा में बैठ 30 बच्चे रहे हैं। बाद में 20 के भोजन को 30 बच्चों में बांट दिया जाता है। इससे बच्चों को पर्याप्त मात्रा में पोषण नहीं मिल पाता। बीच में ऐसी विसंगतियां शिकायत के रूप में इंदौर कलेक्टर के सामने आई थी। कुछ केंद्रों पर लगाम कसी भी गई। हालांकि सख्ती थोड़े दिन का ही सुकुन दे पाई।
बड़ी दिक्कत है पलायन...
क्षेत्र के बाशिंदों की मानें तो भील बाहुल्य क्षेत्रों में कुपोषण पर काबू पाने की राह का सबसे बड़ा रोड़ा लोगों का काम की तलाश में पलायन है। बच्चों के पेट या आहार की चिंता किए बिना यहां के लोग नौकरी की तलाश में इंदौर चले जाते हैं। वहां महीनों तक काम करने के बाद लौट आते हैं। पलायन अवधि में बच्चों को न तो पालकों की ओर से न नियमित रूप से सही आहार मिल पाता है न ही सरकार की ओर से। ऐसे में यह भी देखने में आया है कि पलायन के बाद जब लोग गांव लौटते हैं तो उनमें से कई के बच्चे कुपोषित हो जाते हैं।
न स्टाफ न संसाधन..
मानपुर परिक्षेत्र से लगे गांवों में स्वास्थ्य सेवाओं की स्थिति गड़बड़ है। यहां स्वास्थ्य सेवाओं के लिए न तो पर्याप्त ग्रांट मिल पाती है न ही स्टाफ। ग्रांट और स्टाफ की कमी के कारण यहां कई आंगनबाडिय़ां सिर्फ सरकारी औपचारिकता बनकर ही रह गई हैं। जब आंगनबाड़ी ही पोषित नहीं है तो बच्चों को पोषण कैसे मिले?
पहुंच से दूर व्यवस्था...
बडग़ौंदा और चोरल के पास पहाड़ी से लगे कई ऐसे गांव है जहां बरसात के चार महीनों में पहुंच मुश्किल हो जाती है। इनमें पीपल्या, डमाली, कुशलगढ़, रामपलाश घाट प्रमुख रूप से शामिल है। एक बार की बरसात के बाद यहां आना-जाना बंद सा हो जाता है। आंगनबाडिय़ों तक पोषण आहार तक नहीं पहुंच पाता। चोरल के राजपुरा, रेखा, कमाटपुरा की हालत भी यही थी लेकिन अब यहां रोड बनने से बदलाव साफ नजर आता है।
भील-आदिवासी मेंज्यादा
जैसे शिवपुर व अन्य शहरिया जाति में कुपोषण ज्यादा पाया जाता है। वैसे ही महू में भील जाति के बच्चे ज्यादा कुपोषित हैं। इसका अंदाजा महिला एवं बाल विकास विभाग द्वारा कराए सर्वे में सामने आए आंकड़ों से भी लगाया जा सकता है। सर्वे के मुताबिक महू में जितने बच्चों में कुपोषण सामने आया उनमें से 60 फीसदी भील जाति से ताल्लुक रखते हैं।
आर्थिक और शैक्षणिक पहलु भी जिम्मेदार
भील बाहुल्य इलाके आर्थिक और शैक्षणिक दोनों पहलुओं से पिछड़े नजर आते हैं। यहां लोगों के पास अपने बच्चों को पर्याप्त मात्रा में पोषण आहार उपलब्ध कराने के लिए न तो पर्याप्त पैसा है न उतना ज्ञान की वे कैलोरी जैसे कुपोषण के व्याकरण को समझ सके। यह भी देखने में आया है कि ज्यादातर लोग कुपोषण को सुखामेली बोलते हैं। यदि उनसे कोई जाकर कुपोषण की बात करता भी है तो वे सुखामेली और कुपोषण में अंतर नहीं कर पाते। ऐसे में 'क्या आपके घर में कोई कुपोषित बच्चा हैÓ जैसे सवाल के जवाब में ज्यादातर लोग मना कर देते हैं।
यह हो सकती है रणनीति...
- ऐसे गांव चिह्नित किए जाएं जहां आगनबाडिय़ों की स्थिति खराब है? इस बिंदु को लेकर यदि स्टोरी की जाए तो प्रशासन की नींद खुलेगी। ज्यादा न सही, थोड़ा-बहुत सुधार तो आएगा ही।
- ऐसी सामाजिक समूहों के नाम भी उजागर किए जा सकते हैं जो बच्चों को पर्याप्त पोषण आहार उपलब्ध नहीं करा रहे हैं?
- जिन गांवों में बरसात के दौरान पहुंच मुश्किल होती है वहां इस बात के विकल्प पर जोर दिया जाना जरूरी है कि वहां बरसात से पहले ही पोषण आहार पर्याप््त मात्रा में पहुंच सके।
- ऐसे अभियान भी चलाए जा सकते हैं जिनसे प्रेरित होकर प्रशासन इन गांवों में कुपोषण के प्रति जनजागृति लाए।
- पलायन से लौटे बच्चों को ज्यादा खुराक मिले। या वे जिस जगह जाकर रहते हैं उनके आसपास ही आंगनबाड़ी केंद्रों पर उन्हें पोषण मिल जाए।



ऑटो-टैंकर में 20 फीट लंबे सीमेंट पाइप ! chandramauli shukla

उज्जैन नगर निगम और तापी की जादूभरी मिलीभगत
इंदौर. विनोद शर्मा ।
'पेसेंजर ऑटो रिक्शा में 15 फीट लंबे और दो फीट डाया के आधा दर्जन पाइप आ सकते हैं...। टैंकर में भी इन पाइपों को आसानी से रखकर सप्लाई किया जा सकता है...।Ó किसी को यह बात हजम हो या न हो लेकिन नगर निगम उज्जैन को सौंपे तापी प्रिस्ट्रेस्ट प्रोडक्ट्स लि. के बिल तो यही कहानी कहते हैं। इतना ही नहीं नगर निगम ने बिल के रूप में कंपनी की इस जादूई कहानी को पहले मंजूरी देकर भूगतान कर दिया, आपत्ति बाद में ली। जिस वक्त भुगतान हुआ उस वक्त निगमायुक्त चंद्रमौली शुक्ला थे जिनके खिलाफ उज्जैन से जुड़े अलग-अलग मामलों में लोकायुक्त जांच जारी है।
जेएनएनयूआरएम के तहत उज्जैन में जलप्रदाय योजना के तहत पाइप लाइन डालने का ठेका नगर पालिका निगम ने भुसावल महाराष्ट्र की तापी प्रीस्ट्रेस्ड प्रॉडक्ट लिमिटेड कंपनी को 2009 में सौंपा था। कंपनी को 60.14 करोड़ में 400 किलोमीटर लंबी लाइन डालना थी। कंपनी का काम शुरू से विवादों से घिरा रहा। 2010 में मिली शिकायत के बाद लोकायुक्त ने जांच शुरू कर दी थी। इसके बाद अलग-अलग कई शिकायतें मिली। अरविंद पाटीदार, ईश्वर पाटीदार, संजय ठाकुर और रवि चौधरी ने संयुक्त शिकायत के साथ कंपनी के जो बिल लगाए हैं उनमें पाइप सप्लाई के लिए जिन वाहनों का इस्तेमाल बताया है उनमें एमपी09-6811 और एमपी-09-केए-७३९१ का जिक्र भी है। इसमें एमपी09-6811 रामसिंह पिता बलराम सिंह के ऑटो रिक्शा का नंबर है जबकि एमपी-09-केए-७३९१ बजरगनगर इंदौर निवासी यादवराव देशमुख का टैंकर है। न टेंकर मं पाइप आ सकते हैं न ही ऑटो रिक्शा में। दोनों गाडिय़ों से मई 2009 में पाइप आना बताए गए थे।
शिकायत तत्कालीन निगमायुक्त चंद्रमौली शुक्ला, सिटी इंजीनियर जगदीश डगावकर, अशोक शुक्ला और तापी प्रिस्ट्रेस्ट डायरेक्टर दीपेश कोटेचा के खिलाफ हुई है।
पहले अनुमति, बाद में आपत्ति
कंपनी ने 110, 140, 160, 200 और 250 एमएम के पाइपों का एक बिल 2009 में पकड़ाया था। 25 मार्च 2009 को इस बिल में 3,55,13,662 रुपए का भुगतान करने की मांग की थी। बिना भौतिक सत्यापन के नगर निगम ने इस बिल को मंजूरी देकर भुगतान कर दिया। 7 जनवरी 2010 को हुई समीक्षा बैठक में कंपनी की प्रगति अत्यंत असंतोषजनक पाई गई थी। यह बात भी सामने आई कि कंपनी के पास पर्याप्त मात्रा में तकनीकी स्टाफ नहीं है। इसीलिए 11 उपयंत्री और 5 सहायक यंत्री सिविल डिग्री धारी भर्ती है। 3 फरवरी 2010 को आयुक्त ने भुगतान पर आपत्ति ली।
शिकायत इन बिंदुओं पर भी...
- कार्य पूरा करने की समय सीमा 11 फरवरी 2011 थी। अब तक यह कार्य पूरा नहीं हो सका है।
- अनुबंध के अनुसार कार्य में पेटी कॉन्ट्रेक्टर या अन्य को शामिल नहीं किया जा सकता पर कंपनी द्वारा चौधरी एक्स सी कंस्ट्रक्शन कंपनी को करीब एक करोड़ से अधिक का कार्य दिया गया। अन्य पेटी कॉन्ट्रेक्टरों को भी कार्य देकर अनुबंध का उल्लंघन किया।
- 21, 22, 23 मार्च 2009 में 140 किमी पाइप का भुगतान कंपनी ने लिया जबकि 22 दिसंबर 2009 तक 140 किमी की पाइपलाइन का स्टाक गोडाउन में उपलब्ध नहीं था।
- खुदाई नक्शे अनुसार नहीं की गई। मानक स्तर अनुसार कम से कम 1.20 मीटर खुदाई होना चाहिए थी लेकिन पाइप ऊपरी सतर पर डालकर छोड़ दिए। जो बाद में वाहनों के दबाव से फुटने लगे।
- जितने पाइप डाले उनमें से ज्यादातर रिजेक्टेड पीस थे।
- कंपनी ने तकनीकी स्टाफ की तंगी के साथ किया काम।
- पाइप लाइन फिटिंग में उपयोग लाया गया मटेरियल मानक स्तर का न होकर निम्न स्तर का।
दिल्ली तक पहुंचा मामला...
शहर में कुल 400 किलोमीटर लंबी पाइप लाइन योजना के तहत डाली जाना है। यह करीब 60 करोड़ की योजना है। दिसंबर 2012 तक काम पूरा नहीं हो सका है। करीब 150  किलोमीटर ही पाइप लाइन डाली जा सकी है। कार्य पूरा होने से पहली ही इसकी क्वालिटी पर सवाल उठे हैं। सांसद प्रेमचंद गुड्डू इसकी शिकायत दिल्ली तक कर चुके हैं।

जीपीएस घोटाला -- दो साल से कंट्रोल रूम बंद, मॉनिटरिंग जारी


नगर निगम और एटूजेड की जुगलबंदी का कारनामा
इंदौर. विनोद शर्मा ।
जेएनएनयूआरएम से 43.50 करोड़ के संसाधन मिलने के बावजूद कचरा प्रबंधन में नाकाम रहे नगर निगम और ए-टू-जेड की जुगलबंदी ग्लोबल पोजिसनिंग सिस्टम (जीपीएस) के नाम पर दो साल से शहरवासियों की आंखों में धूल झोंक रही है। कचरा गाडिय़ों पर जीपीएस लगाकर नगर निगम कंट्रोल रूम बनाना भूल गया। यह नगर निगम की विलक्षण प्रतिभा ही है कि जिसके दम पर बिना कंट्रोल रूम के जीपीएस न सिर्फ सफलतापूर्वक चल रहा है बल्कि हर दिन रिपोर्ट भी जनरेट कर रहा है।
कचरे के नाम पर जमकर नगर निगम के खजाने में सेंध लगाई जा रही थी। इसकी रोकथाम और जेएनएनयूआरएम की गाइडलाइन का पालन करते हुए नगर निगम ने जुलाई 2011 में कचरा गाडिय़ों पर जीपीएस लगाने का काम पीसीएस टेक्रोलॉजी को सौंपा। पीसीएस ने नगर निगम की 150 से ज्यादा कचरा गाडिय़ों पर जीपीएस सिस्टम लगाए। जीपीएस इंस्टॉलेशन की लागत आई तकरीबन 20 लाख रुपए। इसी कड़ी में नगर निगम के कंट्रोल रूम पर सेंट्रलाइज कंट्रोल रूम बनाया जाना था ताकि वहां से इन कचरा गाडिय़ों की गतिविधियों पर निगाह रखी जा सके।  22 महीने में यह कंट्रोल रूम नहीं बना। जीपीएस लगी कचरा गाडिय़ां शहर की सड़कों पर सरपट दौड़ रही है। अब बिना कंट्रोल रूम के नगर निगम उन पर निगाह भी रखे तो कैसे?
कभी यहां, कभी वहां...
गाडिय़ों की गतिविधियों पर नजर रखने के लिए बनाया जाने वाला जीपीएस कंट्रोल रूम को लेकर शुरुआत में यह कहा जाता रहा कि स्वास्थ्य विभाग के कंट्रोल रूम के पीछे एटूजेड का जो कंट्रोल रूम है उसी में जीपीएस की मॉनिटरिंग मशीने भी लगी है। दबंग दुनिया ने जब कंट्रोल रूम का जायजा लिया तो वहां किसी तरह की कोई मशीन नजर नहीं आई। अलबत्ता वहां बैठे एक व्यक्ति ने कहा जीपीएस कंट्रोल रूम यहां नहीं, मलेरिया विभाग के कक्ष के पास है। मलेरिया विभाग के कक्ष के पास वर्षों से बंद चैनल गेट पर एक बैनर टंगा है। बैनर पर लिखा है 'जीपीएस/जीआरपीएस कंट्रोल रूम फॉर सॉलिड वेस्ट मैनेजमेंटÓ। पीछले तीन महीने से बंद चैनल गेट पर यह बैनर यूं ही टंगा है। पूछने पर किसी ने बताया नगर निगम के कंट्रोल रूम है जीपीएस व्यवस्था जबकि कंट्रोल रूम में सिवाय फोन लाइन व अन्य दस्तावेजों के अलावा कुछ नजर नहीं आया।
इसीलिए लगाए थे जीपीएस...
-- कचरा गाडिय़ों में कचरा कम भरा जाता है।
-- ट्रेंचिंग ग्राउंड जाने के बजाय गाडिय़ां इधर-उधर फेंक जाती थी कचरा। दस्तावेजों में ट्रेंचिंग ग्राउंड बताती थी। फायदा था डीजल का  पैसा बचाना।
-- हाईकोर्ट की सख्त हिदायत।
-- जेएनएनयूआरएम के मापदंड।
यहां लगने थे...
-- सभी कचरा गाडिय़ों पर।
-- सभी पानी के टेंकर पर।
नुकसान क्या..
-- जब कंट्रोल रूम ही नहीं होगा तो उन गाडिय़ों की मॉनिटरिंग कैसे होगी जिन पर जीपीएस लगाए गए हैं।
-- यदि मॉनिटरिंग ही नहीं होगी तो कैसे पता चलेगा कि कौनसी गाड़ी ट्रेंचिंग ग्राउंड तक पहुंची या नहीं।
-- एक कचरा गाड़ी ने कितने फेरे लगाए।
-- पानी के टेंकर जनता तक पहुंचे या किसी होटल या मॉल में खाली हो गए।

जनहित का मुद्दा ही नहीं है..
कंट्रोल रूम कहां है?
नगर निगम में।
नगर निगम में कहां?
हमने कंपनी को लगाने को कहा था।
कंपनी ने कहां लगाया?
यह कंपनी जाने। हमने जो अनुबंध किया था उसके मुताबिक जीपीएस की व्यवस्था कंपनी को ही करना थी। हमारा कोई लेना-देना नहीं है।
फिर नगर निगम मॉनिटरिंग कैसे रखता है?
मॉनिटरिंग की जिम्मेदारी भी कंपनी की है।
फिर भी शहरहित में तो कभी पूछा ही होगा कंपनी से?
नहीं, इसमें शहरहित से लेना-देना नहीं है। यह तो कंपनी के फायदे के लिए ही था। ताकि कंपनी को पता हो कौनसी गाड़ी कहां है।
आपको पता है कंपनी ने कंट्रोल रूम बनाया ही नहीं?
यह अपना विषय ही नहीं है। कंपनी जाने। हाईकोर्ट में भी कंपनी ने ही हलफनामा दिया है।
मुन्नालाल यादव, प्रभारी
स्वास्थ्य समिति
मेंटेनेंस का खर्च भारी पड़ गया...
वैसे मोबाइल पर मॉनिटरिंग जारी है
जीपीएस कंट्रोल रूम कहां है..?
वो है न, वर्मा के ऑफिस की तरफ जाते हैं उधर।
वह तो बंद पड़ा है?
हां, जीपीएस का मामला थोड़ा प्रॉब्लम में है।
क्या प्रॉब्लम है?
जीपीएस तो लगा रखा है लेकिन मेंटेनेंस खर्च ज्यादा होने के कारण दिक्कत आ रही है।
कितना खर्च?
दो लाख रुपए प्रति माह।
कब से बंद है कंट्रोल रूम।
महीने-दो महीने हुए हैं।
छह महीने पुराने फोटो तो हमारे पास ही है?
हां, तो छह-आठ महीने हो चुके होंगे बंद हुए।
फिर मॉनिटरिंग कैसे करते हो?
फोन पर।
फोन पर ?
हां, यह तो बहुत आसान है। वैसे भी हमने मैदानी अमला लगा रखा है।
विकास झा
डीजीएम एटूजेड


मकान रह गया, मौत नाम हो गई...

- नामांतरण कराने पहुंचे सिंघल की नगर निगम जोन पर मौत
नगर निगम के जोनल कार्यालय पर अधिकारियों की हीलाहवाली ने एमआईजी निवासी हीरालाल सिंघल की जान ले ली। पहले हाउसिंग बोर्ड परेशाान हुए। 15 दिन से नगर निगम जोनल कार्यालय के चक्कर काट रहे थे। हर बार अधिकारी कागजी कमीपेशी बताकर उन्हें बिदा कर देेते थे। सूत्रों की मानें तो नामांतरण के नाम पर अलग-अलग एनओसी मांग कर अधिकारी आवेदक को इतना परेशान कर देते हैं कि वह पैसा देने के लिए मजबूर हो जाए। कई बार लोग विधायक रमेश मेंदोला या पार्षद चंदू शिंदे की मदद लेते हैं तब कहीं जाकर होता है घर उनके नाम।
इंदौर.  विनोद शर्मा ।
दोपहर 2.30 बजे। एमआईजी निवासी हीरालाल सिंघल (52 वर्ष) नामांतरण के लिए नगर निगम के जोन नं. 9 (पंचम की फेल) पहुंचे। साइकिल टिकाई..।  कैरियर में दबी रसीदें  और कुछ दस्तावेज निकालकर वे बाबू के पास बैठ गए। नामांतरण के लिए और क्या फॉर्मलिटी लगेगी? इतना पूछने के बाद वे जैसे ही खड़े हुए, गिर पड़े। मुंह से खून आ गया। अधिकारियों ने 108 बुलाई। 108 उन्हें क्योरवेल अस्पताल ले गई। वहां डॉक्टरों ने सिंघल को मृत घोषित कर दिया। उधर, नगर निगम के अधिकारी अपने तरीके से हीरालाल की मौत के अलग-अलग कारण गिनाते रहे।
हीरालाल सिंघल 10 एमआईजी में रहते थे। मप्र हाउसिंग बोर्ड से उनके मकान का नामांतरण हो चुका था। बचा था नगर निगम के दस्तावेजों में अपना नाम चढ़वाना। इसके लिए वे दो-तीन मर्तबा पहले भी जोनल कार्यालय के चक्कर काट चुके थे। उन्होंने कभी सोचा नहीं था कि मकान नाम कराने के चक्कर में मौत नाम हो जाएगी। हुआ भी यही। मंगलवार को भी वे रसीदें लेकर अधिकारियों से यही पूछने गए थे कि अब और क्या दस्तावेज लाकर दूं। चिलचिलाती धूप में पसीना-पसीना हीरालाल ने जोन पर पदस्थ बाबू मनोहर धंवाडे से बात की। धवांड़े ने एक कागज पर दस्तावेजों की फेहरिस्त और नामांतरण फीस तक की जानकारी लिखकर दे दी। इसके बाद हीरालाल उठे और गिर गश खाकर गिर पड़े। मौके पर मौजूद जोन अधिकारी कैलाश चौधरी व अन्य कर्मचारी यही सोचते रहे कि मिर्गी आने के कारण वे गिरे हैं। शुरुआती उपाय के बाद लगातार मुंह से आते खून को देख चौधरी ने 108 और पीसीआर वेन को सूचना दी।
108 के आने तक चौधरी-धवांडे ने फोन करके क्षेत्रीय पार्षद रूपेश देवलिया को सूचना दी। हीरालाल के परिजन का संपर्क नंबर मांगा। देवलिया ने भी वार्ड के प्रमुख सिंघल परिवारों से संपर्क करने के बाद हाथ खड़े कर दिए। इसी बीच हीरालाल की जेब में रखे मोबाइल में डायल पहले नंबर पर कॉल किया और परिजन से बात हुई। सूचना मिलते ही परिजन भी पहुंचे। परिजन 108 में लिटाकर जब तक क्योरवेल अस्पताल पहुंचते तब तक हीरालाल की मौत हो चुकी थी। मौत की पुष्टि क्योरवेल अस्पताल ने भी की।
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मेरे पास हीरालाल आए थे। वे नामांतरण करवाना चाहते हैं। मुझसे कागजी फार्मेलिटी के बारे में पूछा था जो मैंने उन्हें बता दिया था। वे भरी दोपहर में साइकिल से आए थे। थके हुए थे। शायद इसीलिए चक्कर खाकर गिर पड़े थे। हमने उनके परिजन को बुलाकर उन्हें 108 के साथ रवाना कर दिया था। आगे कोई जानकारी नहीं।

मनोहर धवांडे, बाबू
मुझे लगा मिर्गी आ गई, 108 में लिटाया तब तक जिंदा थे..
घटना मेरे सामने की है। जब हीरालाल गिरे तो उनके मुंह से खून आ रहा था पहले मुझे लगा कि उन्हें मिर्गी का दौरा आया है लेकिन बाद में हालत बिगडऩे लगी। इससे पहले हम 108 पर सूचना दे चुके थे। मौत का समाचार शाम 7 बजे बाद मिला।
कैलाश चौधरी, जोनल अधिकारी
दोपहर में 108 हीरालाल को लेकर आई थी। यहां ड्यूटी डॉक्टर और नर्स ने ईसीजी चेक किया। पता चला, उनकी पहले ही मौत हो चुकी थी। इससे ज्यादा जानकारी न हमें है। न ही 108 को थी।
इनक्वायरी काउंटर
क्योरवेल हॉस्पिटल
पते की पुष्टि नहीं कर पाया...
जोन से फोन आने के बाद मैंने सभी प्रमुख सिंघल परिवारों से बात की लेकिन कोई पते या परिवार की पुष्टि नहीं कर पाया। इसकी जानकारी जब तक मैंने जोन पर दी तब तक वे उनके परिवार से बात कर चुके थे।
रूपेश देवलिया, पार्षद पति





परमार्थ की जमीन पर स्वार्थ का सौदा


- ट्रस्टियों की मनमानी से बियाबानी स्थित प्रेमकुमारी अस्पताल का अस्तित्व खतरे में
- मनमाने ढंग से बिल्डर को बेची जमीन, टाउनशिप बनाने की तैयारी शुरू
दबंग : आओ बचाएं धरोहर
इंदौर. दबंग रिपोर्टर।
नवजात शिशुओं की किलकारियों के साथ कई परिवारों को खुशियां दे चुके प्रेमकुमारी देवी पारमार्थिक अस्पताल का अस्तित्व समाप्त होने का है। 70 साल पहले होलकर रियासत ने इस अस्पताल के लिए बियाबानी में जो जमीन दी थी सर सेठ स्वरूपचंद हुकमचंद दिगंबर जैन पारमार्थिक संस्था के कर्ताधर्ताओं ने उसका सौदा त्रिशला डेवलपर्स एंड बिल्डर्स प्रा.लि. के नाम कर दिया। एक-एक कर अस्पताल की पुरानी इमारतें तोड़ी जा चुकी हैं। जल्द ही यहां चार मंजिला इंटीग्रेटेड टाउनशिप आकार लेगी। इसके लिए खुदाई शुरू भी हो चुकी है। संस्था संचालक सौदे को सही और जरूरी बता रहे हैं, वहीं मिलीभगत के कारण सरकारी अफसर दखलंदाजी करने तक को तैयार नहीं है।
मामला 9/1/1 वैद्य ख्यालीराम मार्ग, बियाबानी स्थित श्रीमंत यशवंतराव आयुर्वेदिक औषधालय और दानशीला कंचनबाई प्रसूति गृह से लगी 70,531 वर्गफीट जमीन का है। अस्पताल का संचालन सर सेठ स्वरूपचंद हुकमचंद दिगंबर जैन पारमार्थिक संस्था करती है। अस्पताल और प्रसूतिगृह के सफल संचालन से खुश होलकर रियासत ने दानशीला कंचनबाई प्रसूतिगृह व शिशु स्वास्थ्य रक्षा संस्था 'जो कि सर सेठ स्वरूपचंद हुकमचंद दिगंबर जैन पारमार्थिक संस्था की पूरक संस्था के रूप में जनवरी 1942 में पंजीबद्ध हुई थीÓ, को यह जमीन दान दी थी। इसका उपयोग ताउम्र अस्पताल के रूप में होना था। प्रेमकुमारी देवी अस्पताल के रूप में 70 साल तक जमीन का उपयोग स्वास्थ्य के लिए हुआ भी। अपने वंशज और होलकर रियासत के बीच हुए इस करारनामे को नजरअंदाज करते हुए 3, एमजी रोड निवासी धीरेंद्रकुमार पिता राजाबहादुरसिंह कासलीवाल और यशकुमार सिंह पिता राजकुमार सिंह कासलीवाल तर्फे सर सेठ स्वरूपचंद हुकमचंद दिगंबर जैन पारमार्थिक संस्था ने जमीन 8/8 सुदामानगर निवासी राकेश पिता राधेश्याम शर्मा की कंपनी त्रिशला डेवलपर्स एंड बिल्डर्स प्रा.लि. के नाम कर दी। दोनों के बीच विक्रय अनुबंध 29 जून 2012 को हुआ।
जीर्णोद्धार के नाम पर जीमी जमीन
- ट्रस्ट और कंपनी के बीच हुए विक्रय अनुबंध में लिखा है उक्त 70  हजार वर्गफीट जमीन खाली है जिसे ट्रस्टी ट्रस्ट संपत्ति के सदुपयोग के लिए और उससे प्राप्त धन से ट्रस्ट द्वारा संचालित प्रसृतिगृह व अस्पताल 'जो कि जीर्ण-शीर्ण हालत में हैÓ, का जीर्णोद्धार और नवीनीकरण करना चाहते हैं। इस काम के लिए ट्रस्ट को रजिस्ट्रार ऑफ ट्रस्ट से अनुमति (15बी/113/2010-11 आदेश 30 अपै्रल 2011) भी प्राप्त है।
- यह अनुबंध 37/63 प्रतिशत साझेदारी के साथ हुआ है। इसके मुताबिक यहां बनने वाली टाउनशिप से जो भी आय होगी, उसका 63 प्रतिशत हिस्सा बिल्डर को जाएगा जबकि 37 प्रतिशत की अपनी साझेदारी ट्रस्ट मौजूदा अस्पताल परिसर को आधुनिक बनाने पर खर्च करेगा।
ऐसे दी थी जमीन
- कुल जमीन थी 1,24,315 वर्गफीट।
- 1921 से पहले इसे जंवरीबाग की इमारत के रूप में जाना जाता था।
- 12 जून 1921 में 38,546 वर्गफीट जमीन पर प्रिंस यशवंतराव आयुर्वेदिक जैन औषधालय व कंचनबाई प्रसूतिगृह बनाया गया। लागत 70 हजार रुपए आई जिसका भुगतान इंदौर स्टेट म्युनिसिपालिटी ने किया।
- 1942 में अस्पताल-प्रसूतिगृह की 21वीं वर्षगांठ पर 70 हजार वर्गफीट जमीन ट्रस्ट को दी।
- ट्रस्ट ने एक के बाद एक पांच भवनों की स्थापना की थी।
यह थी शर्तें...
उक्त जमीन पर प्रसूतिगृह बनेगा। एक डिस्पेंसरी होगी, जहां स्त्री-बच्चों का इलाज होगा। यहां बच्चों को स्वच्छ और तंदुरुस्त रखने की शिक्षा भी दी जाएगी। राजरत्न वार्ड में एक कमरा ऑपरेशन और एक कमरा उन्हें भर्ती रखने के लिए होगा। संचालन दानशीला कंचनबाई संस्था की देखरेख में होगा। जमीन और इमारतों का उपयोग ताउम्र यही होता रहेगा। एक ईंट भी अन्य उपयोग के लिए नहीं लगाई जा सकेगी।
यह था मकसद
जिस वक्त जमीन दी थी, ज्यादातर प्रसूति घरों में होती थी और स्वच्छता ने होने से कई जच्चा-बच्चा की अकाल मौत हो जाती थी। प्रसूताएं व नवजात शिशु अकाल मौत न मरे, इसी नेक मकसद के साथ प्रसूति गृह की स्थापना की गई।
जमीन का विवरण
पूर्व में उत्तर से दक्षिण तक 354 फीट
उत्तर में पूर्व से पश्चिम तक 185 फीट
दक्षिण में पूर्व से पश्चिम तक 200 फीट
पश्चिम में उत्तर से दक्षिण तक 350 फीट
जमीन की चतु: सीमा
पूर्व में टाटपट्टी बाखल व रविदास पुरा
उत्तर में प्रिंस यशवंतराव आयुर्वेदिक जैन औषधालय
पश्चिम में गली, फिर बियाबानी के मकान
दक्षिण में ट्रस्ट की फेंसिंग व अन्य मकान।








बारूद के ढेर पर दतौदा, नौ मिल...


लक्ष्मी फायर वर्क्स से आशंकित है लोग
गेट पर ताला डालकर लिखा है कारखाना बंद, अंदर बन रहे हैं सुतली बम
पांच किलोग्राम बारूद और सुतली देकर घर-घर में बनवा रहे हैं पटाखे
इंदौर. विनोद शर्मा ।
7 अक्टूबर 2011 दशहरे के दूसरे दिन राऊ की पटाखा फेक्टरी में अचानक विस्फोट के साथ लगी आग में एक महिला सहित 6 लोगों की मौत का मामला अभी ठंडा भी नहीं पड़ा है कि खंडवा रोड स्थित नौ मिल गांव का भविष्य बारूद के ढेर पर आकर टिक गया। यहां लक्ष्मी फायर वर्क्स नाम की पटाखा फेक्टरी है जहां, 'फेक्टरी बंद हैÓ, का बोर्ड लगाकर सूतली बम बनाने का काम जारी है। नियमों को तांक पर रखकर स्कूल और आबादी से सटकर बने इस कारखाने में आग से निपटने के लिए न पर्याप्त पानी है न ही रेत से भरी बाल्टियां। एश्टिंग््यूशर भी खाली पड़े हैं। बीते दिनों कंपनी परिसर में लगी आग और आग में झूलसे चौकीदार के परिवार ने कंपनी के पुख्ता सुरक्षा इंतजामों की पोल भी खोल दी। इतना ही नहीं कंपनी ग्रामीण श्रमिकों को पटाखा बनाने के लिए पांच किलो बारूद और एक किलोग्राम सुतली भी देती है जिससे गांव के कई घरों में बम बनाए जाते हैं।
सीमेंट की तरह बोरियों में भरा बारूद...। सूतली बम के ढेर के बीच बैठकर पटाखे बनाती महिलाएं...। गेट पर ताला डला है...। ऑफिस की दीवार पर लिखा है 'फैक्ट्री बंद है, आगामी आदेश तक...Ó। यह मंजर है खंडवा रोड पर दतौदा फाटे से लगे नौ मिल गांव का जिसका भविष्य गांव से लगी पटाखा फेक्टरी के बारूद पर टिका है। कंपनी में लगी आग से तीन लोग झुलसने के बाद पूरा गांव राऊ की तरह किसी बड़े हादसे की आशंका से आशंकित है। आशंकित हो भी क्यों न, बारूद के गोदाम से चंद कदम की दूरी पर स्कूल और आबादी जो ठहरी। वह भी उस स्थिति में जब राऊ हादसे में न सिर्फ अगल-बगल के मकानों को नुकसान पहुंचा था बल्कि 4 किलोमीटर दूर तक की जमीन थर्रा गई थी।
ऐसी है कंपनी...
कंपनी ग्राम दतौदा की सर्वे नं. 445/1 की 2.631 हेक्टेयर जमीन पर है। जमीन 341 साधुवासवानीनगर निवासी नरेंद्र पिता घनश्यामदास बालचंदानी के नाम दर्ज है। दतौदा रोड से लगी जमीन पर 11 अगल-अलग निर्माणों के रूप में कारखाना संचालित है। कारखाने का नाम लक्ष्मी फायर वर्क्स है। भारत सरकार के विस्फोटक विभाग से कंपनी को लाइसेंस प्राप्त है। लाइसेंस नं. ई/सीसी/एमपी/२०/३९(ई३८०३३) और ई/सीसी/एमपी/२1/2९(ई३८०३2) है। सड़क से लगे तीन निर्माण में चौकीदार-श्रमिक रहते हैं। एक में ऑफिस है। एक में बारूद का गौदाम। जहां सीमेंट की तरह बोरियों में बारूद भरा है। इसी गोदाम से चंद कदम की दूरी पर ही टीन शेड की वह खोली है जहां तेजसिंह और उसका परिवार आग में झूलसा था।
जो है और जो लिखा है उसमें अंतर है...
छोटे-छोटे जो निर्माण है उनमें से एक पर लिखा है मिक्सिंग शेड जिसकी क्षमता 10 किलोग्राम बारूद की है और यहां एक साथ चार लोग बैठकर काम कर सकते हैं। दूसरे शेड पर लिखा था फिलिंग शेड, जिसकी क्षमता 20 किलोग्राम बारूद की है और चार लोग बैठ सकते हैं। हालांकि इन शेड का इस्तेमाल सिर्फ स्टोर रूम की तरह हो रहा है। पटाखे बाहर बैठकर बनाए जा रहे हैं।
कारखाना बंद है...लेकिन काम जारी है...
गेट पर ताला डला रहता है। आवाज लगाने पर जिस ऑफिस के अंदर से चौकीदार चाबी लाकर दरवाजा खोलता है उसकी दीवार पर लिखा है कारखाना आगामी आदेश तक बंद है। अंदर धूप में बैठा महिलाओं का दो समूह सुतली बम बनाता नजर आ जाता है। सूरक्षा के नाम पर उनके पास बाल्टियां टंगी है। कुछ में रेत है तो कुछ खाली है। पानी के दो छोटे-छोटे होद है जिनमें बमुश्किल 50-50 लीटर पानी आता है। एस्टिंग्यूशर पुराने हैं। कुछ रिफिल्ड हैं। कुछ खाली।
50 फीट पर स्कूल और 50 मीटर पर आबादी...
जिस जगह पर बारूद का गोदाम और कारखाना है वहां से बमुश्किल 50 कदम की दूरी पर सरकारी स्कूल है जहां नौ मिल और दतौदा के ही नहीं बल्कि आसपास के गांवों से बच्चे पढऩे आते हैं। वहीं बमुश्किल 50 मीटर की दूरी पर झूग्गी आबादी है। ज्यादातर के मकान घास-फुस और टीनशेड के हैं। आसपास के लोगों ने बताया कि जब से राऊ में हादसा हुआ था तभी से दहशत में हैं लेकिन बीते दिनों यहां लगी आग ने डर को दोगुना कर दिया है। कारखाना कब कैसे बंद हो जाता है और कैसे शुरू हो जाता है इसकी जानकारी कोई नहीं देता।
पांच किलो बारूद और एक किलो सुतली...बन गया हर घर कारखाना
सूत्रों की मानें तो कंपनी द्वारा पांच किलोग्राम बारूद और एक किलो दिया जाता है। ओवरटाइम के रूप में श्रमिक इस सामग्री को ले जाकर घर में पटाखे बनाते हैं। उनके घरों में न तो आग बुझाने के लिए ढंग से पानी मिलता है न ही रेत की बाल्टी। उधर, दो नंबर से मंगाई गई बारूद से इस हिसाब को बराबर कर दिया जाता है।




पट्टे की जमीन पर केट special


- अधिग्रहण करके फर्जी मालिकों को बांट दिया था मुआवजा
- नामांतरण के 40 और अधिग्रहण के 30 साल बाद हुआ खुलासा
इंदौर. विनोद शर्मा।
राजा रमन्ना प्रगत प्रोद्योगिकी संस्था (आरआरकेट) के लिए 19 साल पहले नावदा पंथ की जो जमीन अधिग्रहित करते हुए लाखों रुपया मुआवजा बांटा गया था असल में वह पट्टे की जमीन थी। अनुसूचित जाति के लोगों को जमीन पट्टे पर दी गई थी जो अवैधानिक रूप से खरीदी-बेची गई। इसका खुलासा जमीन बिक्री के 30 साल बाद और जमीन अधिग्रहण 18 साल बाद हुई शिकायत के आधार पर की गई 40 साल बाद हुई जांच में हुआ। शिकायत भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के कार्यकर्ताओं ने 2002 में की थी। शिकायत के 10 साल बाद हुए खुलासे के बाद जिला प्रशासन ने 16 में से 6 लोगों के खिलाफ मय ब्याज के मुआवजे की रकम वसूलने के आदेश जारी कर दिए हैं। उधर, कम्युनिस्ट भी बाकी से मुआवजा वसूली की मांग पर अड़े हैं। बहरहाल, शिकवा-शिकायत के दौर के बावजूद सरकार का रवैया बाकी के प्रति सुस्त है।
1983-85 के बीच तकरीबन 27 लोगों की तकरीबन 130 एकड़ जमीन अधिग्रहित की गई थी। उस वक्त तकरीबन 17 लाख रुपए से ज्यादा का मुआवजा तय हुआ था। काफी हिस्सा वितरित हुआ भी। कॉमरेड कैलाश गोठानिया और कॉमरेड रामचंद्र नाना की शिकायत पर मुआवजा वितरण बंद हुआ। तकरीबन 20 साल से जारी शिकवा-शिकायतों के दौर को सितंबर 2012 में अंजाम मिला। जब पहले एसडीएम और बाद में अपर कलेक्टर ने न सिर्फ कॉमरेड की आपत्तियों को जायज माना बल्कि छह के खिलाफ ब्याज सहित मुआवजा वसूली के आदेश भी जारी कर दिए। बाकी के खिलाफ कार्रवाई क्यों नहीं हुई? तमाम कोशिशों के बावजूद शिकायतकर्ताओं को इसका जवाब नहीं मिला। बहरहाल, 28 दिसंबर को कॉमरेड गोठानिया ने भू-अर्जन अधिकारी को पत्र लिखा। पत्र में उन्होंने लिखा कि केट के लिए नावदा पंथ की अधिग्रहित भूमि का मुआवजा रसूखदारों ने गैरकानूनी रूप से रजिस्ट्री कराकर हासिल किया था। छह लोगों से मुआवजा वसूली के आदेश तो जारी हुए थे लेकिन राशि वसूल हुई भी या नहीं? यह आज तक स्पष्ट नहीं ह़ुआ। यह भी स्पष्ट नहीं हुआ कि बाकी रसूखदारों के लिए प्रशासन की क्या रणनीति है।
जांच में सामने आया......
(1) 1958-59 में ग्राम नावदापंथ की जमीन सर्वे नं. 337/1 में से 27 अनुसूचित जाति के व्यक्तियों को पट्टा वंटन हुआ था।
(2) 1963-64 से 1970-71 तक राजस्व दस्तावेजों में शासकीय पट्टेदार नहीं लिखा गया था। पट्टेधारियों के नाम जमीन मालिक के रूप में दर्ज होने से जमीन बेच दी गई। 1972-73 में के्रेताओं का नामांतरण भी हो गया। नामांतरण पर उस वक्त किसी ने आपत्ति भी नहीं ली। कुल मिलाकर पट्टेदार ने बिना सक्षम स्वीकृति के गैरकानूनी तरीके से पट्टे की जमीन बेची।
(3) आरआरकेट की स्थापना में 1984-85 में जमीन अधिग्रहित की गई थी। चूंकि राजस्व रिकॉर्ड में क्रेताओं का नाम दर्ज था इसीलिए स्वत्व के आधार पर मुआवजा उन्हें दिया गया।
(4) नामांतरण 1972-73, 1974-75 और 1976-77 में हुआ। केट की स्थापना 1984-85 मे हुई। पहली शिकायत 2002 में यानी नामांतरण के 30 और अधिग्रहण के 18 साल बाद हुई।
दोषी कौन-कौन...?
राजस्व विभाग :- पट्टे दिए लेकिन जमीन पर सरकारी पट्टेदार नहीं लिखा।
पट्टेदार :- बिना सक्षम स्वीकृति बेची जमीन।
खरीदार :- न सिर्फ जमीन खरीदी बल्कि मुआवजा भी लिया।
राजस्व अधिकारी :- बिना जांचे-परखे नामांतरण किया।
अवैधानिक तरीके से खरीदी गई थी जमीन
जमीन अनुसूचित जाति के लोगों को पट्टे पर दी थी। इन लोगों की निरक्षरता का फायदा उठाकर वहां के रंगदार लोगों ने जमीन ओने-पोने दाम पर अपने नाम लिखवा ली। किसी को कीमत चुकाई तो किसी की कीमत पुरानी लेनदारी में बराबर कर दी गई।
कॉ. कैलाश गोठानिया, शिकायतकर्ता
अवैधानिक तरीके से खरीदी गई थी जमीन
रंगदारों ने न सिर्फ गैरकानूनी रूप से जमीन खरीदी बल्कि मुआवजा लेकर 28 वर्षों तक उसका इस्तेमाल किया। इसीलिए उनसे मुआवजे की रकम ब्याज सहित वसूल हो। जैसे 1984 से 2012 के बीच सोने की कीमत बढ़ी वैसे ही रुपए की भी बढ़ी। इसी बढ़ी हुई दर से हो वसूली हो। आपराधिक प्रकरण भी दर्ज हो।
कॉ.रामचंद्र नाना, शिकायतकर्ता
































जुलाई 1985 से मई 86 के बीच इन्हें दिया मुआवजा
नाम खसरा रकबा   मुआवजा यह थे असल मालिक
भगवान पिता हीरालाल 337/1/9 2.024 42,738 गंगाराम पिता रामा
सत्यनारायण देवीलाल 337/1/10 1.943 95,055 बुद्धा पिता नाथू
गणेश पिता मोतीराम "" "" " "" " "" बुद्धा पिता नाथू
अनिल पिता सदाशिव "" "" " "" " "" बुद्धा पिता नाथू
मांगीलाल, विष्णु, नारायण 337/1/7 2.024 42,738 जगन्नाथ पिता सुखराम
घनश्याम पिता रामनाथ 337/1/2 2.024 42,738 गोपाल पिता लाला
गोविंद पिता जगन्नाथ 337/1/24 2.024 42,738 आत्माराम पिता सुखराम
















इंदौर में 443.17 रुपए का मिलेगा सिलेंडर gas

- 4.47 प्रतिशत की छूट से कीमतें 17.13 रुपए कम
- सरकार के खजाने पर पड़ेगा 300 करोड़ का फर्क
इंदौर. चीफ रिपोर्टर ।
इंदौर में जो गैस का सिलेंडर अभी 461.50 में मिल रहा है वही एक अपै्रल से 443.17 रुपए में मिलेगा। वहीं नॉन सब्सडाइज्ड सिलेंडर जो कि ९५० रुपए में मिलता है 1 अपै्रल से ९११.७५ रुपए में मिलेगा। 37 दिनों में अंतर आएगा कुल 17.13 से लेकर ३८.२५ रुपए का। वित्त मंत्री राघवजी द्वारा पेश उनके 10 वें बजट में उन्होंने गैस सिलेंडर पर इंट्री टैक्स ४.४७ प्रतिशत जो घटाया है उसी का सुखद परिणाम साबित होगी सिलेंडर की नई कीमतें।
टैक्स प्रेक्टिसनर्स एंड कंसलटेंट आर.एस.गोयल ने बताया वित्त मंत्री ने इंट्री टैक्स 6.47 से घटाकर २ प्रतिशत कर दिया। इससे 17.13 रुपए/सिलेंडर कीमत कम हो गई। इंदौर में हर महीने सात लाख सिलेंडर की खपत होती है। यानी हर महीने सरकार के खजाने में 1.19 करोड़ रुपए कम पहुंचेंगे। सालाना यही आंकड़ा 14.३८ करोड़ होता है। यदि प्रदेशभर की बात करें तो सरकार के खजाने पर औसतन 300 करोड़ का असर पड़ेगा।
17.13 रुपए सस्ता होगा सिलेंडर
इंट्री टैक्स की दरों में अंतर ४.४७ प्रतिशत का। इससे सब्सिडी वाले सिलेंडर जिसकी की कीमत ४६१.५० रुपए है पर १७.१३ रुपए कम होंगे। वहीं ९५० रुपए वाले नॉनसब्सिडी वाले सिलेंडर की कीमत ३8 रुपए तक कम होगी।
सूरज कैरो, अध्यक्ष
मप्र एलपीजी वितरक संघ
सब्सडाइज्ड सिलेंडर
31 मार्च तक 1 अपै्रल अंतर
मुल कीमत 377.83 ३७७.८३ ००.००
इंट्री टैक्स(६.४७) से(2) २४.४५ 7.56 16.89
--------------
कुल कीमत ४०२.२८ ३८५.५९ 16.89
वेट (५ प्रतिशत) २०.११ १९.२७   ०.८४
डीलर्स कमिशनर ३९.११ ३९.११ ०.००
रीटेल सेलिंग प्राइस ४६१.५० ४४३.१७ १७.१३
नॉन सब्सडाइज्ड सिलेंडर
31 मार्च तक 1 अपै्रल अंतर
मुल कीमत ८१४.७९ ८१४.७९ ००.००
इंट्री टैक्स(६.४७) से(2) ५२.७२ १६.३० ३६.४२
--------------
कुल कीमत ८६७.५१ ८३१.०९ ३६.४२
वेट (५ प्रतिशत) ४३.३८ ४१.५५   १.८३
डीलर्स कमिशनर ३९.११ ३९.११ ०.००
रीटेल सेलिंग प्राइस ९५० ९११.७५ ३८.२५


सोने ने मुश्किल किया सोना..

संकट में गोल्ड लोन कंपनियां, बढऩे लगे डिफाल्टर 
इंदौर. चीफ रिपोर्टर ।
सोने की कीमतों में भारी गिरावट ने मुथूट फाइनेंस और मन्नापुरम फाइनेंस जैसी नॉन बैकिंग फाइनेंसियल कंपनियों (एनबीएफसी) की नींद उड़ा दी है। बीते सप्ताह कीमतों का ग्राफ गिरने का असर इन कंपनियों के शेयर पर दिखा है। जानकारों की मानें तो सोने टूटने से गोल्ड लोन के डिफाल्टर्स कई गुना तक बढ़ जाएंगे। बैंकों का मार्जिन कम होगा। वहीं 30 हजार रुपए/तोला के भाव का सोना बड़े पैमाने पर खरीदकर बैठे व्यापारी माथ पीट रहे हैं। हालात यह है कि इंदौर, भोपाल, सागर, रतलाम  और मुंबई जैसे शहरों में भारी नुकसान से बचने के लिए दुकान बंद कर दी है। उनका कहना है जब भाव मिलेगा तब सोना बेचेंगे। कई दुकानदारों ने गढ़वाई का दाम बढ़ाकर नुकसानी बराबर करने में जुटे हैं। बाजार में बड़े पैमाने पर सोना आने के बाद जहां व्यापारियों की नींद हराम है वहीं पुलिस को भी चौकसी बढ़ानी पड़ी है। कस्टम एंड सेंट्रल एक्साइज जहां सोने की अवैध खेप पर निगाह रखे हुए हैं वहीं आयकर हर खरीद पर।
मणापुरम फाइनेंस सोने की कीमत 1850/ग्राम आंककर 88 प्रतिशत लोन देती है जो बाजार कीमत के मुकाबले सिर्फ 60 प्रतिशत है। यानी एक तोला (१० ग्राम) की कीमत हुई १८,५०० रुपए। इसका 88 प्रतिशत हुआ 16,280 रुपए। 2.09 प्रतिशत/माह ब्याज के साथ। मुथूट फाइनेंस और मणापुरम फाइनेंस के अधिकारियों की मानें तो सोने का जो बैंकिंग भाव आज १७५० से १८५० रुपए/ग्राम है वही 15 दिन पहले सोने का यही भाव 2200-२३५० रुपए/ग्राम था। उस वक्त जिन उपभोक़्ताओं ने 88 प्रतिशत लोन के रूप में जितनी रकम ली थी आज बाजार में सोने की कीमत उसके आसपास ही है। ऐसे में इस बात की संभावना कम हो जाती है कि उपभोक्ता ब्याज का पैसा चुकाने के साथ लोन की रकम भी चुका दें। इसीलिए सोने की कीमतें घटने के साथ इन कंपनियों के डिफाल्टर्स बढऩा भी तय है। गोल्ड लोन पर ब्याज एक साथ रीपेमेंट के वक्त लिया जाता है और अगर सोने के दाम घटे तो लोन की रिकवरी मुश्किल हो जाती है। बैंकों और गोल्ड एनबीएफसी को अब अपनी रणनीति बदलनी होगी। सोने में गिरावट का मंथली गोल्ड स्कीम पर पर ज्यादा असर नहीं होगा।
बैंकों का मार्जिन कम हुआ
इंडिया रेटिंग्स ने भी इसकी पुष्टि की है। संस्था का दावा है कि सोने में गिरावट आने के बाद बैंकों और गोल्ड एनबीएफसी की मुश्किलें बढ़ी हैं। बैंकों और गोल्ड एनबीएफसी के एसेट क्वॉलिटी पर दबाव आया है। बैंक और गोल्ड एनबीएफसी मार्जिन रखकर गोल्ड लोन देती हैंए ताकि दाम कम होने के बाद डिफॉल्ट होने पर सोना बेचकर लोन वसूल किया जा सके। लेकिन, सोने के टूटने से बैंकों और गोल्ड एनबीएफसी का मार्जिन कम हुआ है। सोने में और गिरावट आने पर ग्राहकों के पास लोन वापस करने का कारण नहीं रहता है। मुथूट फाइनेंस और मन्नापुरम फाइनेंस चौथी तिमाही में घाटे में आ सकते हैं। अगर कंपनियों को सोना बेचना पड़े तो उनके मार्जिन पर दबाव दिखेगा।
दक्षीण में ज्यादा डर...
जानकारों के मुताबिक कीमतें कम होने का सबसे ज्यादा असर उन बैंकों पर दिखेगा जिनके कुल पोर्टफोलियो में गोल्ड लोन का हिस्सा ज्यादा है। ऐसी बैंकों की तादाद दक्षिण भारतीय में ज्यादा है। मणापुरम फाइनेंस की देशभर में कुल ३१५० शाखाएं हैं। इनमें २२३० शाखाएं दक्षीण भारत के चार राज्यों में है। सबसे ज्यादा तमिलनाडू में ५८३, आंध्रप्रदेश में ५६७, कर्नाटक में ५६५, केरल में ५३० है। वहीं मप्र में ८५ शाखाएं हैं। हिमाचल और झारखंड में एक-एक शाखाएं हैं।
सोने के बदले लोन क्यों?
शायद ही कोई भरतीय परिवार होगा जिसे सोने से लगाव न हो। पैसों की तुरंत जरूरत होने पर सोने के बदले लोन लिया जा सकता है। इसके दो कारण हैं। एक तो इसकी प्रोसेसिंग में वक्त नहीं लगता, मतलब सोने के बदले आपको दो-तीन घंटे के भीतर कर्ज मिल सकता है। दूसरे इसकी ब्याज दरें भी कम होती हैं। आम तौर पर सोने के बदले लिए जाने वाले लोन की ब्याज दरें 11ण्75.15 प्रतिशत के बीच होती हैं। ज्यादातर बड़े बैंक और कुछ एनबीएफसी जैसे मुथूट फाइनेंस, मण्णपुरम गोल्ड आदि सोने के बदले लोन उपलब्ध कराते हैं। इस लोन की सबसे बड़ी खासियत यह है कि इसमें नियमित रूप से मासिक किस्तों का भुगतान करना जरूरी नहीं होता है।

मणापुरम गोल्ड
- 1850 रुपए प्रति ग्राम।
- ब्याज 2.09 प्रतिशत ।
- कुल कीमत पर 88 प्रतिशत लोन।
- ब्याज हर महीने।
- सालाना रिनुअल जरूरी।
मुथूट फाइनेंस
- 1७50 रुपए प्रति ग्राम।
- ब्याज 2.0 प्रतिशत ।
- बाजार कीमत के मुकाबले ६०-७० प्रतिशत लोन।
- ब्याज हर महीने।
- जैसे-जैसे पैसा जमा करो मुलधन-ब्याज कम होगा।
ग्राहक खुश, व्यापारी दुखी...
मुंबई का जवेरी मार्केट सोने-चांदी का थोक बाजार है। यहां व्यापारियों ने शादी सीजन को देखते हुए ३०,००० और ३१,००० प्रति तोला के भाव से खरीद रखा था। उम्मीद थी सीजन में भाव बढ़ेंगे, कमाई होगी। हुआ उलटा, सोने का भाव कम होकर २६५०० रुपए/तोला रह गया। 5 से 6 हजार रुपए/तोले की नुकसानी ने व्यापारियों के पेरों तले से जमीन खींच ली। गजजयंति ज्वैलर्स जैसी कई दुकानें बंद हो गई। सोना 20 से 22 हजार/तोला जाने की संभावनाओं ने कुछ व्यापारियों को सदमे में ला दिया है। गजजयंति ज्वलैर्स के संचालक मधुसूदन शर्मा ने बताया कि भाव गिरने के कारण घाटा बहुत हो गया। यदि घाटा खाकर माल बेचा तो जमा-पूंजी बिक जाएगी। नुकसान झेलने से अच्छा है जब भाव मिलेंगा तब बेचेंगे। कुछ ऐसी ही स्थिति इंदोर और रतलाम जैसी प्रदेश की बड़े बाजारों में भी है।
हिसाब बराबर...
जिन दुकानदारों ने दुकानें चालू रखी हैं उन्होंने बनवाई ५० रुपए/ग्राम से बढ़ाकर २५०-३०० रुपए/ग्राम तक कर दी है। अब बाजार में जो सोना २६५०० रुपए/तोले का है, बनवाई के बाद वही सोना २९,०००/ तोले में बिक रहा है। कीमतों में अंतर के कारण आए दिन झगड़े होते हैं इसीलिए मुंबई पुलिस ने जवेरी बाजार में चौकसी बढ़ा दी है।






खाली बताकर जीमी जमीन

2000 रुपए/वर्गफीट की जमीन का सौदा 551 रुपए रुपए/वर्गफीट की दर से 
इंदौर. दबंग रिपोर्टर । 
सात दशक पुराने प्रेमकुमारी देवी पारमार्थिक हॉस्पिटल और दानशीला कंचनबाई देवी प्रसूति गृह की जमीन बेचने की मंजूरी सरकार की आंखों में धूल झोंकते हुए ली गई। सर सेठ स्वरूपचंद हुकुमचंद दिगम्बर जैन पारमार्थिक न्यास के कर्ताधर्ताओं ने पहले एक-एक करके अस्पताल की इमारतें तोड़ी, बाद में जमीन खाली बताकर मंजूरी के लिए आवेदन कर दिया। जमीन के एक हिस्से में  अब भी अस्पताल की एक इमारत और दूसरे हिस्से में कुछ लोगों के मकान है जो वहां तकरीबन 70-80 साल से वहां रह रहे हैं। उधर, गुगल अर्थ की सेटेलाइट इमेज साबित करती है कि जमीन को खाली बताकर बेचने का आवेदन 2011 में हुआ जबकि फरवरी 2012 तक जमीन पर अस्पताल की पांच इमारते खड़ी थी। बहरहाल, झूठ की बुनियाद पर ली गई मंजूरी और मंजूरी की बिनाह पर किए गए सौदे को रद्द करने की मांग भी क्षेत्रवासियों द्वारा की जा रही है।
न्यायालय पंजीयक लोक न्यास, इंदौर ने 30 अपै्रल 2011 को मप्र लोक न्याय अधिनियम की धारा-14 के तहत एक आदेश जारी करते हुए जमीन बेचने की मंजूरी दी थी।  आदेश में लिखा है यश कासलीवाल और धीरेंद्र कासलीवाल ने 9/1/1 वैद्य ख्यालीराम मार्ग स्थित प्रिंस यशवंतराव आयुर्वेदिक जैन औषधालय और प्रेमकुमारी देवी अस्पताल से लगी रिक्त 70531 वर्गफीट जमीन पर अन्य का सहयोग लेकर रेशो में निर्माण और उसे बेचने की मंजूरी चाही थी। न्यायालय के सामने धीरेंद्र कासलीवाल ने 24 अपै्रल 2011 को  अपना पक्ष रखते हुए कहा था कि संस्था 70 साल से प्रेमकुमारी देवी अस्पताल चला रही है। अस्पताल का नवीनीकरण जरूरी है। नई मशीने लगाना है। आईसीयू बनाना है। न्यास द्वारा इसी परिसर में श्री यशवंतराव आयुर्वेदिक जैन औषधालय का संचालन भी किया जा रहा है। दोनों अस्पतालों के संचालन में काफी पैसा खर्च होता है। न्यास के पास दोनों अस्पतालों से लगी 70,531 जमीन है जो किसी उपयोग में नहीं आ रही है। जमीन पर अतिक्रमण की आशंका है। संस्था स्वयं के खर्च पर अस्पताल का विकास करने की स्थिति में नहीं है। इसीलिए 25 नवंबर 2010 को सर्वसम्मति से निर्णय लिया गया कि जमीन पर जमीन पर रेशों में निर्माण हो और निर्मित हिस्सा बेच दिया जाए। आवेदन के साथ न्यास के निर्णय के साथ जमीन का ले-आउट भी दिया गया। न्यास द्वारा प्राप्त राशि का उपयोग अस्पताल के संचालन में किया जाएगा। अनुमति प्राप्त करने की कानूनी कार्रवाई के लिए न्यास अध्यक्ष के रूप में यशकुमार सिंह कासलीवाल को अधिकृत किया गया।
आवेदन के बाद आपत्तियां बुलाई गई लेकिन कोई आपत्तिकर्ता सामने नहीं आया। इसी आधार पर न्यायालय लोक न्यास ने जमीन पर रेशों में निर्माण और किए गए निर्माण को बेचने की मंजूरी दी। यह भी स्पष्ट कर दिया कि शर्तों का उल्लंघन होने पर अनुमति स्वत: ही निरस्त मानी जाएगी।
जमीन खाली थी नहीं, कर रहे थे...
उधर, बात मैदानी हकीकत की करें तो 2010 तक प्रेमकुमारी-कंचनबाई प्रसूति गृह अच्छाभला चल रहा था। 2010 के बाद एक-एक करके अस्पताल की यूनिट बंद कर दी। जुलाई 2011 से पहले पेड़ों की कटाई शुरू हुई। बाद में एक-एक करके निर्माण तोडऩे का सिलसिला। जनविरोध के बाद जमीन पर काम रुू गया था जो फरवरी-मार्च 2012 से दोबारा शुरू हुआ। फरवरी 2012 तक पांच बड़े निर्माण मौके पर थे जिन्हें तोड़कर आज की स्थिति में एक ही निर्माण बचाया गया है।
किस संपत्ति का कितना मुल्य
70,531 वर्गफीट 3,93,30,000
निर्मित क्षेत्र 1800(5500 रुपए/वर्गमीटर की दर) 79,20,000
वृक्ष की कीमत 2,00,000
कुल 4,74, 50,000
4 करोड़ में कर दिया 14 करोड़ की जमीन का सौदा
संपत्ति का मुल्यांकन 551 रुपए/वर्गफीट के आधार पर किया गया जबकि बियाबानी रोड नं. 1-2, वैद्य ख्यालीराम मार्ग पर आवासीय प्लॉट की गाइडलाइन कीमत 2500/वर्गफीट है जबकि व्यावसायिक 3500 रुपए/वर्गफीट है। बात यदि बियाबानी आवासीय गली या वैद्य ख्यालीमार्ग से अंदर स्थित जमीनों की करें तो भी वहां जमीन की कीमत 1500 से 2000 रुपए/वर्गफीट है। यदि जमीन का औसत मुल्यांकन 2000 रुपए/वर्गफीट की दर से भी किया जाता तो जमीन की कीमत 14,10,62,000 होती जबकि मिले हैं 4,74, 50,000 रुपए वह भी 1800 वर्गफीट के निर्मित क्षेत्रफल और दो दर्जन से ज्याया पुराने पेड़ों की कीमत जोड़कर। अंतर 10 करोड़ रुपए का। इसीतरह निर्मित क्षेत्रफल का मुल्यांकन 550 रुपए/वर्गफीट की दर से हुआ जबकि कवेलू छत वाले पुराने स्ट्रक्चर की गाइडलाइन ही 2500 से 2800 रुपए/वर्गफीट है। जिला पंजीयक कार्यालय द्वारा ट्रस्ट को दी गई जमीन के मुल्यांकन में अधिकारियों की मेहरबानी की जांच होना चाहिए