- मैदानी अमले ने कर दी निगमायुक्त के भरौसे की सर्जरी
- कमाई का गढ़ बनी अवैध इमारतें
इंदौर. विनोद शर्मा ।
सख्ती पसंद मनीष सिंह निगमायुक्त के रूप में जहां शहर संवारने में जुटे हैं वहीं बिल्डिंग पर्मिशन की टीम शहरभर में अवैध इमारतों की बोहनी में लगी है। यह वही नाम है जिन्हें बड़े विश्वास के साथ सिंह ने जिम्मा सौंपा है। नक्शा मंजूरी, प्लींथ या कंपलीशन सर्टिफिकेट को वसूली का जरिया बना चुके भवन अधिकारी और भवन निरीक्षक कारण बताओ नोटिस और रिमूवल नोटिस थमाकर जेब भर रहे हैं। इसीलिए शहर में रिमूवल कार्रवाई का ग्राफ गिरा और इमारतों में मनमानी आसमान छू रही है। गुंडो के मकान भले गिराए जा रहे हो पर अवैध निर्माण निगम की छाया में ही पल रहे हैं। नोटिस देकर बड़ी-बड़ी इमारतों को छोड़ने का खेल निगम के अफसर सरेआम खेल रहे हैं। शहर में सैकड़ों इमारतें ऐसी हैं जो सिर्फ सेटिंग के दम पर खड़ी है। अफसरों और बिल्डरों की सेटिंग तोड़े बिना सारी कार्रवाई बेकार है। जरूरत है कड़ी नजर और सख्त फैसलों की।
29 मई 2015 को मुख्यमंत्री शिवराजसिंह चौहान ने एकेवीएन के एमडी के रूप में कार्यरत मनीष सिंह को आयुक्त बनाकर एक दशक से सुस्त पड़े नगर निगम में जान फुंक दी थी। सिंह ने आक्रामक कार्यशैली का उदाहरण देते हुए सबसे पहले हरभजन सिंह और ज्ञानेंद्रसिंह जादौन को चलता करके बिल्डिंग पर्मिशन विभाग की सर्जरी कर दी थी। तब माना जाने लगा था कि अब बिल्डरों की मनामनी नहीं चल पाएगी। हालांकि भवन अधिकारियों और भवन निरीक्षकों के आत्मीय संरक्षण और एक के बाद एक बिल्डिंग पर कार्रवाई में आने वाले राजनीतिक अड़ंगों ने इस उम्मीद पर पानी फेर दिया।
बिल्डिंग पर्मिशन तब भी कमाई का गढ़ था, अब भी
मई 2015 से पहले भी नगर निगम में बिल्डिंग पर्मिशन अफसरों के लिए क्रीम डिपार्टमेंट था और अब भी क्रीम वहीं है। सिंह ने विष्णु खरे, अश्विन जनवदे, वैभव देवलाशे, विवेश जैन, सुरेश चौहान, महेश शर्मा, देवकीनंदन वर्मा, महेश शर्मा, दिनेश शर्मा पर भरौसा किया। शुरुआत में सकारात्मक परिणाम देकर बाद में सभी ने सिंह के भरौसे की ही सर्जरी कर दी। इनकी सबकी चाबी मुख्यालय में बैठे टॉप क्लास अफसरों के पास है। अपनी कमीशन के आधार पर ही इन अधिकारियों को जोन का बंटवारा होता है।
महापौर और एमआईसी बड़ी रोक...
हरसिद्धि जोन और जवाहरमार्ग जोन पर महापौर निवास और विधानसभा-4 के ही एमआईसी सदस्य का कब्जा है। यहां कई मामलों में अधिकारी सिर्फ इसीलिए कार्रवाई नहीं कर पा रहे हैं क्योंकि नोटिस जारी होते ही महापौर हाउस से फोन आना शुरू हो जाते हैं।
सबसे ज्यादा कमाऊ जोन...
हरसिद्धि जोन- जवाहरमार्ग, आड़ा बाजार, रामलक्ष्णबाजार, पलसीकर, सिंधी कॉलोनी, बैराठी कॉलोनी, खातीवाला टैंक जैसे क्षेत्रों में चूंकि जमीन की कीमत ज्यादा है इसीलिए यहां हर दूसरे निर्माण में गड़बड़ झाला हुआ है।
नगर निगम जोन- क्षेत्र में ज्यादातर हिस्सा पुराने शहर का है इसीलिए यहां नए कंस्ट्रक्शन कम होते हैं लेकिन कीमत ज्यादा है इसीलिए उनमें खेल ज्यादा होते हैं। एमजी रोड और जेल रोड के साथ ही इन सड़कों से लगे मोहल्लों में बिल्डरों को मनमानी की पूरी छूट है।
बिलावली जोन- इंद्रपुरी, विष्णपुरी, भंवरकुआं, बिलावली, तेजपुर गड़बड़ी, स्कीम-103 जैसे संपन्न इलाके। जमीन की कीमत ज्यादा इसीलिए कायदों का पालन कम। सबसे बड़ा उदाहरण बॉबी छाबड़ा का सर्वानंदनगर जो 10 साल में पूरा बसा दिया बिना नक्शे के।
स्कीम-54 जोन- स्कीम-114, 114-2, 94, बसंत विहार, पीयू-3, पीयू-4 जैसी स्कीमें जहां जमीन के ऊंचे दामों के कारण बिल्डरों ने मनमानी बिल्डिंगें तानी। आवासीय नक्शे मंजूर। उपयोग व्यावसायिक।
Ñहवा बंगला जोन- फूटीकोठी, द्वारकापुरी, स्कीम-71, ग्रामीण क्षेत्र भी है। इस जोन में बिल्डिंगें ज्यादा बन रही है, दूरी के कारण बिल्डिंगों की मॉनिटरिंग होती है।
आॅनलाइन के बावजूद धोखा...
नक्शा मंजूरी : नक्शा आवेदन भले आॅनलाइन हो। आॅटो डीसीआर से मंजूर होता है लेकिन अफसरों के लिए गली बरकरार है। कभी पुरानी रजिस्ट्री तो कभी चैनल डॉक्यमेंट, कभी 1930 की रजिस्ट्री, पुराने नक्शे मांगकर मामला लटकाया जाता है। फाइल चेक नहीं करते। साइट ओके नहीं करते। आॅनलाइन नक्शा ईमानदारी से सप्ताहभर में पास हो सकता है जो दो-तीन महीने तक लटकाए रखा जाता है। जितना ज्यादा पैसा, उतना जल्दी काम।
प्लींथ सर्टिफिकेट : यह पहला चेकपॉइन्ट है जहां बनने से पहले ही अवैध निर्माण रोका जा सकता है लेकिन दो वर्षों में एक भी प्लींथ सर्टिफिकेट अधिकारियों ने जारी नहीं किए। प्लींथ सर्टिफिकेट जारी करने का मतलब है अधिकारी द्वारा बिल्डिंग की वैधानिकता का प्रमाणिकरण।
नोटिस : अवैध निर्माण की शिकायत पर जांच होती है। जांच के बाद नोटिस दे देते हैं। पहले कारण बताओ। फिर रिमूवल नोटिस। दोनों नोटिस कमाई का जरिया बन गए हैं। नोटिस देकर कार्रवाई नहीं की जाती। सामने वाले से कागज मांगकर वक्त बिताया जाता है। या उसे स्टे के लिए कोर्ट का रास्ता दिखा दिया जाता है।
कंपलीशन सर्टिफिकेट- बिल्डिंग पूरी होने के बाद सक्षम अधिकारी निरीक्षण करता है और सर्टिफिकेट जारी करता है। वहीं इंदौर में बिना कंपलीशन के अधूरी बिल्डिंगों में दुकानें शुरू हो जाती है।
रिमूवल कार्रवाई : बचाने के लिए थाना प्रभारी के पास भेज देते हैं ताकि वह दूसरे दिन बल देने से मना कर दे। गलती से कार्रवाई करना भी पड़े तो तब तक जब तक की फोटो या वीडियो करके मीडिया वाले रवाना न हो। तोड़फोड़ भी वहीं होती है जहां ज्यादा बिल्डर को ज्यादा नुकसान न हो। बाद में लिखवा लिया जाता है कि सात दिन में हम ही तोड़ लेंगे।
- कमाई का गढ़ बनी अवैध इमारतें
इंदौर. विनोद शर्मा ।
सख्ती पसंद मनीष सिंह निगमायुक्त के रूप में जहां शहर संवारने में जुटे हैं वहीं बिल्डिंग पर्मिशन की टीम शहरभर में अवैध इमारतों की बोहनी में लगी है। यह वही नाम है जिन्हें बड़े विश्वास के साथ सिंह ने जिम्मा सौंपा है। नक्शा मंजूरी, प्लींथ या कंपलीशन सर्टिफिकेट को वसूली का जरिया बना चुके भवन अधिकारी और भवन निरीक्षक कारण बताओ नोटिस और रिमूवल नोटिस थमाकर जेब भर रहे हैं। इसीलिए शहर में रिमूवल कार्रवाई का ग्राफ गिरा और इमारतों में मनमानी आसमान छू रही है। गुंडो के मकान भले गिराए जा रहे हो पर अवैध निर्माण निगम की छाया में ही पल रहे हैं। नोटिस देकर बड़ी-बड़ी इमारतों को छोड़ने का खेल निगम के अफसर सरेआम खेल रहे हैं। शहर में सैकड़ों इमारतें ऐसी हैं जो सिर्फ सेटिंग के दम पर खड़ी है। अफसरों और बिल्डरों की सेटिंग तोड़े बिना सारी कार्रवाई बेकार है। जरूरत है कड़ी नजर और सख्त फैसलों की।
29 मई 2015 को मुख्यमंत्री शिवराजसिंह चौहान ने एकेवीएन के एमडी के रूप में कार्यरत मनीष सिंह को आयुक्त बनाकर एक दशक से सुस्त पड़े नगर निगम में जान फुंक दी थी। सिंह ने आक्रामक कार्यशैली का उदाहरण देते हुए सबसे पहले हरभजन सिंह और ज्ञानेंद्रसिंह जादौन को चलता करके बिल्डिंग पर्मिशन विभाग की सर्जरी कर दी थी। तब माना जाने लगा था कि अब बिल्डरों की मनामनी नहीं चल पाएगी। हालांकि भवन अधिकारियों और भवन निरीक्षकों के आत्मीय संरक्षण और एक के बाद एक बिल्डिंग पर कार्रवाई में आने वाले राजनीतिक अड़ंगों ने इस उम्मीद पर पानी फेर दिया।
बिल्डिंग पर्मिशन तब भी कमाई का गढ़ था, अब भी
मई 2015 से पहले भी नगर निगम में बिल्डिंग पर्मिशन अफसरों के लिए क्रीम डिपार्टमेंट था और अब भी क्रीम वहीं है। सिंह ने विष्णु खरे, अश्विन जनवदे, वैभव देवलाशे, विवेश जैन, सुरेश चौहान, महेश शर्मा, देवकीनंदन वर्मा, महेश शर्मा, दिनेश शर्मा पर भरौसा किया। शुरुआत में सकारात्मक परिणाम देकर बाद में सभी ने सिंह के भरौसे की ही सर्जरी कर दी। इनकी सबकी चाबी मुख्यालय में बैठे टॉप क्लास अफसरों के पास है। अपनी कमीशन के आधार पर ही इन अधिकारियों को जोन का बंटवारा होता है।
महापौर और एमआईसी बड़ी रोक...
हरसिद्धि जोन और जवाहरमार्ग जोन पर महापौर निवास और विधानसभा-4 के ही एमआईसी सदस्य का कब्जा है। यहां कई मामलों में अधिकारी सिर्फ इसीलिए कार्रवाई नहीं कर पा रहे हैं क्योंकि नोटिस जारी होते ही महापौर हाउस से फोन आना शुरू हो जाते हैं।
सबसे ज्यादा कमाऊ जोन...
हरसिद्धि जोन- जवाहरमार्ग, आड़ा बाजार, रामलक्ष्णबाजार, पलसीकर, सिंधी कॉलोनी, बैराठी कॉलोनी, खातीवाला टैंक जैसे क्षेत्रों में चूंकि जमीन की कीमत ज्यादा है इसीलिए यहां हर दूसरे निर्माण में गड़बड़ झाला हुआ है।
नगर निगम जोन- क्षेत्र में ज्यादातर हिस्सा पुराने शहर का है इसीलिए यहां नए कंस्ट्रक्शन कम होते हैं लेकिन कीमत ज्यादा है इसीलिए उनमें खेल ज्यादा होते हैं। एमजी रोड और जेल रोड के साथ ही इन सड़कों से लगे मोहल्लों में बिल्डरों को मनमानी की पूरी छूट है।
बिलावली जोन- इंद्रपुरी, विष्णपुरी, भंवरकुआं, बिलावली, तेजपुर गड़बड़ी, स्कीम-103 जैसे संपन्न इलाके। जमीन की कीमत ज्यादा इसीलिए कायदों का पालन कम। सबसे बड़ा उदाहरण बॉबी छाबड़ा का सर्वानंदनगर जो 10 साल में पूरा बसा दिया बिना नक्शे के।
स्कीम-54 जोन- स्कीम-114, 114-2, 94, बसंत विहार, पीयू-3, पीयू-4 जैसी स्कीमें जहां जमीन के ऊंचे दामों के कारण बिल्डरों ने मनमानी बिल्डिंगें तानी। आवासीय नक्शे मंजूर। उपयोग व्यावसायिक।
Ñहवा बंगला जोन- फूटीकोठी, द्वारकापुरी, स्कीम-71, ग्रामीण क्षेत्र भी है। इस जोन में बिल्डिंगें ज्यादा बन रही है, दूरी के कारण बिल्डिंगों की मॉनिटरिंग होती है।
आॅनलाइन के बावजूद धोखा...
नक्शा मंजूरी : नक्शा आवेदन भले आॅनलाइन हो। आॅटो डीसीआर से मंजूर होता है लेकिन अफसरों के लिए गली बरकरार है। कभी पुरानी रजिस्ट्री तो कभी चैनल डॉक्यमेंट, कभी 1930 की रजिस्ट्री, पुराने नक्शे मांगकर मामला लटकाया जाता है। फाइल चेक नहीं करते। साइट ओके नहीं करते। आॅनलाइन नक्शा ईमानदारी से सप्ताहभर में पास हो सकता है जो दो-तीन महीने तक लटकाए रखा जाता है। जितना ज्यादा पैसा, उतना जल्दी काम।
प्लींथ सर्टिफिकेट : यह पहला चेकपॉइन्ट है जहां बनने से पहले ही अवैध निर्माण रोका जा सकता है लेकिन दो वर्षों में एक भी प्लींथ सर्टिफिकेट अधिकारियों ने जारी नहीं किए। प्लींथ सर्टिफिकेट जारी करने का मतलब है अधिकारी द्वारा बिल्डिंग की वैधानिकता का प्रमाणिकरण।
नोटिस : अवैध निर्माण की शिकायत पर जांच होती है। जांच के बाद नोटिस दे देते हैं। पहले कारण बताओ। फिर रिमूवल नोटिस। दोनों नोटिस कमाई का जरिया बन गए हैं। नोटिस देकर कार्रवाई नहीं की जाती। सामने वाले से कागज मांगकर वक्त बिताया जाता है। या उसे स्टे के लिए कोर्ट का रास्ता दिखा दिया जाता है।
कंपलीशन सर्टिफिकेट- बिल्डिंग पूरी होने के बाद सक्षम अधिकारी निरीक्षण करता है और सर्टिफिकेट जारी करता है। वहीं इंदौर में बिना कंपलीशन के अधूरी बिल्डिंगों में दुकानें शुरू हो जाती है।
रिमूवल कार्रवाई : बचाने के लिए थाना प्रभारी के पास भेज देते हैं ताकि वह दूसरे दिन बल देने से मना कर दे। गलती से कार्रवाई करना भी पड़े तो तब तक जब तक की फोटो या वीडियो करके मीडिया वाले रवाना न हो। तोड़फोड़ भी वहीं होती है जहां ज्यादा बिल्डर को ज्यादा नुकसान न हो। बाद में लिखवा लिया जाता है कि सात दिन में हम ही तोड़ लेंगे।
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