Thursday, May 12, 2016

दिल्ली से देहरादुन हुआ ट्रांसफर, पकड़ा हरिद्वारा का रास्ता, लिया सन्यास

पर्यटन अधिकारी रह चुके है नौ भाषाओं के ज्ञानी नागा साधू त्रिलोकेश्वर भारती
उज्जैन से विनोद शर्मा । 
20 बाय 15 का शामियाना...। दो पलंग जोड़कर गद्दा बिछाए बैठे सन्यासी..। जो भक्त गुजरात से आते हैं उनसे गुजराती में बातचीत...। उड़िसा से आए सेवक को उड़िया में फटकार...। विदेशियों से अग्रेजी में बातचीत...। हम बात कर रहे हैं श्री शंभू पंच दशनाम जूना अखाड़े के नागा सन्यासी त्रिलोकेश्वर भारती की जो एक-दो-तीन नहीं बल्कि हिंदी, अंग्रेजी, संस्कृत, उड़िया, कन्नड़, असमिया, बंगाली, गुजराती, जर्मन सहित नौ भाषाओं में खासी पकड़ रखते हैं। हिंदी, अंग्रेजी, संस्कृत और गुजराती में अब वे प्रवचन दे रहे हैं। 
त्रिलोकेश्वर भारती सन्यास लेने से पहले दिल्ली में प्राध्यापक रहे  और फिर इंडियन टुरिज्म डेवलपमेंट कॉर्पोरेशन (आईटीडीसी) में टुरिज्म आॅफिसर के रूप में सेवा दी। तकरीबन दो साल नौकरी की। दिल्ली से उनका ट्रांसफर देहरादुन हुआ जो उन्हें समझ नहीं आया। इसीलिए बचपन से ब्रह्मचर्य का पालन करते आये त्रिलोचन मिश्र ने सन्यास ले लिया। गुलबर्गा (कर्नाटक) के राईमलाई गांव ‘जो ब्राह्मण बाहुल्य और हर घर में स्थापित हवनकुंड के लिए जाना जाता है’, में जन्में त्रिलोकेश्वर जी की प्रारंभिक शिक्षा-दीक्षा जगन्नाथपुरी में हुई। डीएबी स्कूल-कॉलेज से पढ़ाई हुई। लखनऊ से बीसीए और बॉटनी में पीजी किया। जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू) से इकोलॉजी में एमफिल किया। इस दौरान ढ़ाई साल दिल्ली में प्राध्यापक रहे। एमफिल के बाद भारतीय पर्यटन निगम में पर्यटन अधिकारी के रूप में तीन साल नौकरी की।
मैं दिल्ली पदस्थ और वहां से कहीं जाना नहीं चाहता था। इसी बीच मेरा ट्रांसफर दिल्ली से देहरादुन हुआ। चूंकि मैं नाराज था इसीलिए हरिद्वार गया और जूना अखाड़े का ध्वज थाम लिया। सन्यासी जीवन शुरू कर दिया। आज असम, बंगाल और गुजरात में मठ हैं। 
ऐसे बदलता गया नाम... 
कर्नाटक में रहते नाम था त्रिलोचन राईमलाई। जगन्नाथपुरी में दीक्षा के लिए गये तो नाती-जाती के जोड़-बिजोड़ से नाम हो गया त्रिलोचन मिश्र। इसी से पढ़ाई-नौकरी की। सन्यास के बाद नाम हुआ मानस चेतन्य ब्रह्मचारी। असम में आसाम बंगीय सारस्वत मठ में श्री महंत स्वामी ज्योतिर्मानंद सरस्वती के सानिध्य में ब्रह्मचर्य दीक्षा संपन्न हुई। नया नाम मिला त्रिलोकेश्वर भारती। सन्यास में नाम नहीं होता। योगपट होता है जैसे जूना अखाड़े में सरस्वती, गिरी, भारती जो कि नाम के आगे लगता है इसीलिए महंत भारती त्रिलोकेश्वर भी कहते हैं। फिर नागा दीक्षा हुई। 
अखाड़े के काम सरलता से कर पाते हैं 
शिक्षा व भाषाई ज्ञान से सन्यासी जीवन में क्या लाभ मिला? इस संबंध में उनका कहना है कि सन्यास में शिक्षा काम नहीं आती हां इसका फायदा अखाड़े के काम को सुलभ और सुचारू रूप से करने में जरूर मदद मिलती है। अखाड़े में कारोबारी व स्थानापति की भूमिका भी निभा चुका हूं। 

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