Wednesday, July 29, 2015

स्वास्थ्य समिति: काम कम, दौरे ज्यादा


छह हजार से अधिक कर्मचारियों की फौज और व्यवस्था के निजीकरण के बाद भी प्लॉटों में फैला कचरा
स्वास्थ्य
नगर निगक की कार्यपद्धति दस विभागीय हिस्सो में बंटी है। इन विभागों के अपने दायित्व और जिम्मेदारियां हैं। हर विभाग की एक समिति होती है। अध्यक्ष एमआईसी सदस्य होता है। अन्य ९ सदस्यों में तीन विपक्ष और छह सत्तापक्ष के पार्षद रहते हैं। ऐसे में शहर की जनता उन लोगोंके कामकाज का लेखाजोखा जानना चाहती है जिन्हें चुनकर उन्होंने समिति का पदाधिकारी बनाया था। पाठकों की मांग पर 'पत्रिकाÓ हर दिन प्रस्तुत करेगा समितियों की मार्कशीट। पहली किश्त स्वास्थ्य विभाग..।
इंदौर, विनोद शर्मा ।
कचरा प्रबंधन के नाम कभी हैदराबाद-अहमदाबाद तो कभी आधुनिक स्लॉटर हाउस के लिए अलीगढ़। पांच बरस में ऐसे प'चीसों अंतरप्रांतीय दौरे और तकरीबन ६,००० सफाईकर्मियों के लंबे-चौड़े लबाजमें के बाद भी नतीजा सिफर। यह है नगर निगम मैनेजमेंट की सबसे मजबूत कड़ी कहलाने वाले स्वास्थ्य विभाग का पंचवर्षीय सफरनामा। पहले एशियन डेवलपमेंट बैंक (एडीबी), डिपार्टमेंट फॉर इंटरनेशनल डेवलपमेंट (डीएफआईडी) और बाद में जेएनएनयूआरएम से तकरीबन  ७० करोड़ की मदद मिलने के बाद भी विभाग शहर को मुक्कमल सफाई नहीं दे पाया। विभागीय पदाधिकारी जो भी बयानबाजी करें लेकिन सड़क-प्लॉट और मैदानों में फैली गंदगी की कड़वी सगााई को नकार नहीं सकते।
    इंदौर, किसी की औद्योगिक राजधानी तो किसी के लिए मुंबई का छोटा ख्याली रूप। २००४ की निर्वाचित निगम परिषद ने आवाम से पांच वर्षों में शहर की फिजा बदलकर स्व'छ और स्वस्थ्य इंदौर का वादा किया था। कुछ मौर्चों पर सफलता मिली तो कई मामलों में नाकामी ही हाथ लगी। फिर वह कचरा प्रबंधन की आधुनिक व्यवस्था हो या बूचडख़ानों का अत्याधुनिकीकरण। २००५ में स्वास्थ्य विभाग का बजट वेतन छोड़कर दो से तीन करोड़ रहता था जबकि आज जेएनएनयूआरएम-एडीबी और डीएफआईडी से विभाग ७० करोड़ से अधिक की योजनाओं पर काम कर रहा है। बजट में ३५ गुना इजाफे के मुकाबले व्यवस्था अपेक्षाकृत नहीं बदली। पांच साल बाद भी कॉलोनियों में कचरे के धुएं का गुबार लोगों का सांस लेना दुभर करता नजर आता है।
अध्यक्ष- राजेंद्र राठौर,
सदस्य- राजेंद्र जायसवाल, सुमनलता यादव, राजकपूर सुनहरे, पराग लोढ़े, हरिशंकर पटेल, प्रेम खड़ायता, मूलचंद यादव, दुर्गा कौल। २४ बैठकें हुई। आधे पार्षद गायब रहे।
प्रमुख काम
शहर में सफाई व्यवस्था को पुख्ता करना। सड़क, मोहल्ले और घरों से कचरा इक_ा करना। म'छरों के साथ बीमारियों की रोकथाम। जन्म-मृत्यु प्रमाण-पत्र और विवाह पंजीयन प्रमाण-पत्र देना। दुषित खाद्य सामग्री की बिक्री पर अंकुश लगाना।
प्रमुख काम जो किए
- जुलाई २००५ की बाढ़ के बाद नालों की सफाई करके बाढ़ के प्रभाव को कम किया।
- एडीबी, डीएफआईडी के सहयोग से संसाधन बढ़ाए।
- २००६ में बर्ड फ्लू, २००७ में चिकनगुनिया और २००९ में स्वाइन फ्लू की रोकथाम के लिए अभियान चलाए।
- जोरों पर दुषित खाद्य सामग्री की धरपकड़।
- जेएनएनयूआरएम की सहमति के बाद ४३ करोड़ के संसाधन उपलब्ध कराए।
- शहर से पहले २०० से २५० मेट्रिक टन कचरा उठता था। आज ६०० टन से अधिक कचरा शहर से बाहर जा रहा है।
- विवाह पंजीयन की व्यवस्था नगर निगम में।
-जन्म-मृत्यु प्रमाण-पत्र बगैर आवेदन के अस्पताल में भेजे गए।
काम जो नहीं कर पाए
- सुप्रीम कोर्ट की गाइड लाइन और प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के नोटिसों के बाद भी ट्रेंचिंग ग्राउंड में जलता है कचरा। पांच साल में पचासों दौरों के बाद भी कचरे से खाद बनाने का प्लांट कागजों में।
- तमाम संसाधनों की उपलब्धता के बाद भी म'छरों से मुक्त नहीं हुआ इंदौर।
- सफाई में ढिलाई के कारण २००७ में चिकनगुनिया और २००९ में डेंगू और डायरिया जैसी बीमारियों ने शहर में जगह बनाई।
- सफाईकर्मियों की बाढ़ के बाद भी सफाई असरकारक नहीं।
- कचरा पेटी के लिए ९०० में से २०० स्टैंड बने। बाकी पार्षदों की आपत्तियों की भेंट चढ़ गया।
- सुप्रीमकोर्ट के सख्त आदेशों के बाद भी स्लॉटर हाउस कागजों पर। दौरों के नाम पर लाखों रुपए खर्च हुए।
- शहर की पैथालॉज लेब्स का पंजीयन नहीं हुआ।
- दूध और खाद्य के जो नमूने पहले सुबह लिए जाते थे उनमें आई कमी ने मिलावटखोरों के मनोबल को बढ़ाया।
लिक से हटकर
- प्रभारी ने वैचारिक मतभेद के कारण सीएचओ डॉ. ए.के.पुराणिक को हटाकर डॉ. डी.सी.गर्ग को सीएचओ बनाया।
- विवाह पंजीयन कार्यालय को सुविधाजनक स्थान से हटाकर पहली मंजिल पर प्रभारी कार्यालय के पास लाया गया।
- कचरा प्रबंधन और संसाधनों की उपलब्धता को लेकर एमआईसी में रहा मतभेद। कई बार ठनी। 
- सफाई कर्मचारी संघ के एक नेता ने दी घासलेट डालकर महापौर का घर  जलाने की धमकी।
-गरीब तबके के लिए महत्वपूर्ण दीनदयाल उपाध्याय वरिष्ठजन स्वास्थ्य बीमा योजना एमआईसी की मनमानियों की भेंट चड़कर रह गई।
वोटर का मिजाज: विकास पर जोर, सफाई कमजोर
मनोरमागंज निवासी श्यामबाबू अग्रवाल ने बताया पांच साल पहले मैंने भाजपा को वोट दिया था। सोचा था शहर शहर साफ होगा। निगम परिषद ने पांव वर्षों में सड़क और सीवरेज सहित दूसरे ढांचागत विकासकार्यों पर जोर दिया हालांकि सफाई व्यवस्था कमजोर रही।
(सिटी फोटो में श्यामबाबू अग्रवाल का फोटो डला है। देख लेना।)
एक्सपर्ट कमेंट- बजट बढ़ाया, सफाई प्रबंधन नहीं
स्वास्थ्य विभाग को १० में से ३ नंबर ही दुंगा। इससे 'यादा का वह हकदार नहीं। वित्तीय सहयोग से नगर निगम ने स्वास्थ्य विभाग का बजट बढ़ाया। हालांकि शहर की बढ़ती सरहदों के साथ सफाई प्रबंधन पर जोर नहीं दिया। यही वजह है कि पांच साल बाद भी सफाई व्यवस्था वहीं की वहीं हैं। निगम मस्टरकर्मियों से सफाई कराता है जो मन लगाकर काम करने को तैयार ही नहीं। कचरा इक_ा करके पेटी में डालने के बजाय ये लोग आग लगाकर पाप टालने में विश्वास रखते हैं। इससे प्रदूषण फैल रहा है। लोग बीमार हो रहे हैं। साकेतनगर जैसे शहर के सबसे पॉश इलाके के प्लॉटों में औंधी पड़ी पेटियां और फैला कचरा सफाई सुधार के खोखले दावों को मुंह चिढ़ाता है।
महेंद्र महाजन, सीईपीआरडी



महिला एवं बाल विकास- घपले से श्रीगणेश


- पेंशन घोटाले के बाद भी ६२ हजार हितग्राही
- २४ हजार हितग्राहियों की पात्रता हो चुकी थी रद्द
इंदौर, विनोद शर्मा ।
जनवरी २००५ में ५८ हजार से शुरू और नवंबर २००९ में ६२ हजार हितग्राहियों पर खत्म। यह सफरनामा है निगम प्रबंधन की सबसे मजबूत कडिय़ों में से एक महिला एवं बाल विकास विभाग का। इस विभागीय सफरनामे का श्रीगणेश पेंशन कांड जैसे महाघोटाले से हुआ। हालांकि समापन शांतिपूर्ण रहा। हालांकि ताजा आंकड़ों और आंकड़ों को लेकर विभागीय भूमिका पर उठने वाले सवालों के बीच विपक्षियों को शांति के बाद वाले बवंडर की तलाश है।
 'सर मुंढाते ही ओले पड़ेÓ जैसी कहावतें महिला एवं बाल विकास विभाग पर सटिक बैठी। समिति प्रभारियों ने जनवरी २००५ में कामकाज संभाला ही था कि अपै्रल २००५ में पेंशन घोटाले का जिन्न चिराग तोड़कर सामने खड़ा हो गया। घोटाले में ५८ हजार में से २४,०११ हितग्राही अपात्र घोषित हो गए। जांच अब भी जारी है। मौजूदा परिषद का घोटाले से लेना-देना नहीं था लेकिन सात महीनों तक कामकाज प्रभावित रहा। दस एमआईसी सदस्यों में महापौर डॉ. उमाशशि शर्मा की सबसे नजदीकी रही सपना चौहान ने घोटाले के दबाव को दूर करते हुए नए सिरे से मौर्चा संभाला और जुलाई २००५ से पात्र पाए गए ३४,१८९ हितग्राहियों की पेंशन जारी करना शुरू कर दी। नए आवेदनकर्ताओं की जोनवार जांच के बाद पात्रता सुनिश्चित करने की नई प्रथा लागू की, जो आज तक जारी है। एमआईसी के दायित्वों में बदलाव, पार्षदों के बिखराव और बहाली के बाद बीते १६ जून २००८ से विभाग का दारोमदार लालबहादुर वर्मा के कंधों पर हैं। पांच बरस तक लगातार विवादों के कारण सुर्खियों में रहे लाल उसी मंत्री खेमे के खास सिपेसालार हैं जो पेंशन घोटाले के प्रमुख आरोपी हैं। हालांकि लाल के काम को लेकर अभी तक अंगुली नहीं उठी।
अध्यक्ष- जनवरी ०५ से जून २००८ तक सपना निरंजनसिंह चौहान
जून २००८ से- लालबाहदुर वर्मा
सदस्य- सविता अखंड, निर्मला कैरो, सुमनलता वर्मा, अनुराधा उदावत, संध्या अजमेरा, पुनिया तरेटिया, फौजिया शेख अलीम, शबाना अयाज गुड्डू और रश्मि वर्मा
दायित्व-जिम्मेदारियां
महिला एवं बाल विकास विभाग दो भागों में बंटा है। एक का नियंत्रण जिला प्रशासन के पास है तो दूसरे का नगर निगम के पास। आवेदक फार्म जमा करता है। निगम प्रशासन जोनवार फार्म की जांच कराता है। जांच रिपोर्ट के आधार पर आवेदक की पात्रता की पुष्टि करके सूची जिला प्रशासन को सौंप दी जाती है। वहां से सूची के आधार पर राशि स्वीकृत होती है।
प्रमुख काम जो किए
-पेंशन कांड उजागर होने के बाद पात्रों का पैसा सहकारी साख संस्थाओं के माध्यम से देना बंद कर दिया। डायरियां बनाकर मनीऑर्डर से पैसा दिया जाने लगा।
- मनीऑर्डर में पोस्टमैन की मनमानी का खुलासा होते ही सदस्यों के पोस्ट ऑफिस में खाते खोल दिए गए। अब तक ५२ हजार से अधिक खातेदारों के खाते खुल चुके हैं।
- तकरीबन १० हजार आवेदन खातों के पास डाकविभाग के पास विचाराधीन हैं।
लिक से हटकर
- जनवरी २००८ में महापौर डॉ. उमाशशि शर्मा ने एमआईसी के दायित्वों में परिवर्तन किया था। इसमें सामन्य प्रशासन समिति प्रभारी लालबहादुर वर्मा को बाहर का रास्ता दिखा दिया था।
- तकरीबन दो दर्जन पार्षदों के कड़े विरोध के बाद जून में एमआईसी में लाल की वापसी हुई और उन्हें महिला एवं बाल विकास प्रभारी बना दिया गया।
- लाल विधानसभा-२ से ताल्लुक रखने वाले उसी खेमे के खास हैं जिसके खिलाफ पेंशन घोटाले की जांच बीते पांच साल से जारी है।
एक नजर में सामाजिक सुरक्षा पेंशन
- कुल ६४ हजार हितग्राही और आवेदक
- ५२ हजार के पोस्ट ऑफिस में खाते खुले
- १० हजार आवेदन डाक विभाग के पास विचाराधीन
- बाकी दो हजार आवेदनों की जांच जारी।
- हितग्राहियों में ८,२७३ विकलांग, १७,२८६ विधवा-परितक्ताएं और १२,६९६ वृद्ध ६० से ६५ वर्ष के बीच के हैं। वहीं ६५ बरस से अधिक के हितग्राहियों की संख्या ३८,२५५ है।
क्या कहते हैं वोटर
व्यवस्थित हुई पेंशन व्यवस्था
- आदर्श इंदिरानगर निवासी विकास यादव की मानें तो कई लोग आज भी महीनों से पेंशन के लिए आवेदन लेकर अधिकारियों के चक्कर काट रहे हैं। पात्रों के नाम पर कई अपात्र फायदा उठा रहे हैं। शुरूआती दौर में कई महीनों तक पेंशन नहीं मिली।

पांच बरस में पेंशन व्यवस्था में खास बदली है। पहले साख संस्थाओं में लाइन लगाकर खड़े रहना पड़ता था। सुनिश्तिच तारीख तक जो सदस्य पेंशन नहीं ले पाता था उसे संस्था बाद में पैसा नहीं देती थी और न ही राशि विभाग को लौटाती थी। मनिऑडर में पोस्टमैंन परेशान करने लगे और आखिरकार पोस्ट ऑफिस में खाते खोलना पड़े। अब कभी भी जाकर अपना पैसा नजदीकी पोस्ट ऑफिस से निकाला जा सकता है।

शपथ-पत्र में आठ और भाषण में तीस करोड़


- बयानबाजी में उलझी संघवी की स"ााई
इंदौर, सिटी रिपोर्टर।
मेरे पिताजी एक करोड़ रुपए छोड़कर "ए थे। मेहनत के दम पर आज मेरे पास ३० करोड़ से अधिक की एफडी है। यह कहना है महापौर पद का चुनाव लडऩे वाले कां"्रेस प्रत्याशी पंकज संघवी का। नामांकन के साथ निर्वाचन कार्यालय को दिए शपथ-पत्र में संघवी ने स्वयं को तकरीबन साढ़े आठ करोड़ की चल-अचल संपत्ति का मालिक बताया है। यानी उनके शपथ-पत्र और भाषण के बीच सीधे २२ करोड़ का अंतर हैं। इस अंतर ने संघवी के शपथ-पत्र और उसकी विश्वसनीयता पर प्रश्नचिह्न ल"ाना शुरू कर दिया है।
२६ नवंबर को महापौर पद के लिए १२ दावेदारों की थी। नामांकन के साथ निर्वाचन कार्यालय में सभी ने शपथ-पत्र पर चल-अचल संपत्ति का लेखाजोखा भी दिया। इसमें ८.५८ करोड़ की संपत्ति के साथ संघवी पहले क्रम पर रहे जबकि २.२० करोड़ की संपत्ति के साथ भाजपा के उम्मीदवार कृष्णमुरारी मोघे दूसरे क्रम पर। २७नवंबर से उम्मीदवारों ने चुनाव की मैदानी तैयारियों का जायजा लेना शुरू कर दिया। २९ नवंबर को इतवारिया बाजार की हुकुमचंद धर्मशाला में संपन्न हुए मिलन समारोह में संघवी भी पहुंचे। कार्यकर्ताओं में ज'बा ज"ाने के लिए संघवी ने भाषण देना शुरू कर दिया। भाषण में अपने अनुभव और काबीलियत का उदाहरण देते हुए वे अपनी संपत्ति की स"ााई बयां कर बैठे। उन्होंने तकरीबन पांच सौ लो"ों की मौजूद"ी के बीच खचाखच भरे हॉल में कहा मैंने मेहतन से एक के तीस करोड़ रुपए कर दिए। उन्होंने कहा मेरे "ुजराती समाज के पदाधिकारी बनने के बाद समाज को सामाजिक बुलंदियां मिली। प्रयास करके हमने समाज के खजाने को ४०० करोड़ रुपए तक पहुंचा दिया।
अब ऐसे में सवाल यह है कि संपत्ति ब्यौरे के मामले में पहले ही तमाम दावेदारों को कोसो पीछे छोड़ चुके संघवी ने निर्वाचन कार्यालय में झुठा शपथ-पत्र क्यों दिया। शपथ-पत्र में बाकी २१.५ करोड़ रुपए का खुलासा क्यों नहीं किया। यदि शपथ-पत्र को स"ाा माना जाए तो क्या वे भाषणों के माध्यम से कार्यकर्ताओं के सामने झुठ परोस रहे हैं। इस संबंध में संघवी से संपर्क करने की कई मर्तबा कोशिश की। हालांकि जनसंपर्क की व्यस्तता के कारण उनसे बात नहीं हो पाई।
क्या था शपथ-पत्र
कुल-८ करोड़, ५८ लाख, ९२ हजार ११७. ८१
चल संपत्ति- नकद-३०,०७८.९७ रुपए स्वयं और पत्नी के पास ३, ४९२.०२ रुपए हैं।
शेयर, बांड, डाक बचत, एलआईसी पॉलिसी सहित अन्य- 1,72,62,386.82 रुपए के बांड, शेयर व अन्य मं जमा राशि खुद के पास। 1,33,11,849 रुपए के शेयर, बांड व अन्य में जमा राशि पत्नी के पास।
जेवर- सोने व चांदी के ल"भ" 53,500 रुपए के स्वयं के पास। पत्नी के पास तकरीबन 9 लाख रुपए के।
जमीन- 34,10,000 रुपए की कृषि भूमि। 3,67,65,767 रुपए के प्लॉट और उस पर 51,75,000 रुपए के निर्माण। वल्लभन"र में स्वयं, पत्नी, और बेटी के नाम से तकरीबन एक हजार वर्"फीट का और बिचौली मर्दाना में तकरीबन नौ हजार वर्"फीट का प्लॉट। दोनों की कीमत 8.98 लाख है।
बैंकों और वित्तीय संस्थाओं में देनदारी- 31,45, 246 रुपए की।

कचरे से रोशन होगा इंदौर

- मप्रऊविनि और नगर निगम संयुक्त रुप से अंजाम देंगे योजना को
डेढ़ सौ करोड़ की लागत से लगेगा 10 मेगावॉट का प्लांट
इंदौर, सिटी रिपोर्टर ।

शहर की फिजा बिगाडऩे के साथ शहरवासियों की सेहत के लिए जहर साबित हो रहा कचरा जल्द ही इंदौर को रोशन करता नजर आएगा। मप्र ऊर्जा विकास निगम और इंदौर नगर निगम ने इसके लिए इंदौर में मप्र का पहला कचरे से बिजली बनाने का प्लांट डालने की तैयारियां शुरू कर दी हैं। तकरीबन डेढ़ सौ करोड़ की इस योजना के तहत 10 मेगावॉट का सयंत्र लगाया जाएगा। सयंत्र में शहरभर से एकत्रित कचरे का वैज्ञानिक पद्धति से उपचार करके बिजली बनाई जाएगी। बहरहाल एमपीयूवीएन की सैद्धांतिक सहमति के बाद योजना दस्तावेजी खाका खींचने की तैयारी हो चुकी है।
    कचरा प्रबंधन योजना के तहत सॉलिड वेस्ट ट्रीटमेंट प्लांट (एसडब्ल्यूटीपी) स्थापित करने में नाकाम रहे इंदौर नगर निगम ने एक कोशिश और की। कोशिश है कचरे से बिजली बनाने की। निगम की इस कोशिश एमपीयूवीएन सैद्धांतिक सहमति का सहारा दे चुका है। बतौर निगमायुक्त और एमपीएकेवीएन एमडी रहते इंदौर के कचरे की दिक्कत से वाकीफ एमपीयूवीएन के एमडी नीरज मंडलोई ने विशेष रुचि लेते हुए प्रोजेक्ट को सैद्धांतिक मंजूरी दे दी। अधिकारियों मानें तो योजना के तहत 10 मेगावॉट बिजली का उत्पादन किया जाना प्रस्तावित है। एक  मेगावॉट के लिए 15 करोड़ का निवेश होता है। यानी प्रोजेक्ट की अनुमानित लागत डेढ़ सौ करोड़ रुपए होगी। पीपीपी बेस्ड इस प्लांट के लिए जमीन नगर निगम उपलब्ध कराएगा। सहुलियत के लिहाज से जमीन ट्रेंचिंग ग्राउंड के आसपास भी हो सकती है।
ए-टू-'ोड ने ली रुचि
परियोजना को अंजाम तक पहुंचाने के लिए गुडग़ांव की ए-टू-'ोड कंपनी ने रुचि ली है। कचरा प्रबंधन योजना के तहत इंदौर में पहले से वेस्ट कलेक्शन कर रही इस कंपनी के साथ जल्द ही एमपीयूवीएन और इंदौर नगर निगम अनुबंध करेंगी।
सौदा फायदे का
---बिजली बनने के बाद कचरे का अंतिम अवशेष गैर नुकसानदेह राख होगी।
--- इस राख से टाईलें, निर्माण सामग्री में इस्तेमाल होने वाले अन्य पदार्थ बनाए जा सकेंगे।
--- राख का इस्तेमाल निचले स्थानों की भराई के लिए भी किया जा सकेगा।
--- परियोजना जलवायु परिवर्तन पर संयुक्त राष्ट्र के समझौते के अंतगर्त पंजीबद्ध है।
--- सरकार को सस्ती बिजली मिलेगी।
--- कचरे के साथ बदबू और बीमारियां भी कम होगी।
देर आए दुरुस्त आए
दक्षीण दिल्ली के ओखला इलाके में बीते दिनों वहां की मुख्यमंत्री ने 16 मेगावॉट के प्लांट की मंजूरी दी। तिहाड़ जेल में भी कचरे से रोशनी देने की तैयारियां पूरी हो चुकी हैं। आगरा की तैयारियां भी अंतिम चरण में हैं।
सुधरेगी इंदौर की सेहत
यूनिट न केवल कूड़े से बिजली बनाने की महत्वकांक्षी योजना को पूरा करेगी बल्कि इंदौर को साफ-सुथरा बनाए रखने में भी कारगर साबित होगी। इंदौर रोज 700 से 800 मेट्रिक टन कचरा उगलता है। इतने कचरे का निपटान अकेले निगम के बूते की बात नहीं है। परियोजना इंदौर को अतिरिक्त बिजली देगी वहीं रोज उत्पन्न होने वाले कचरे का 40 फीसदी हिस्सा प्लांट में निपट जाएगा।
नीरज मंडलोई, एमडी
एमपीयूवीएन
नगर निगम पर्यावरण सुधार के लिए प्रयासरत है। इसी क्रम में प्रस्ताव भेजा था। यदि प्रस्ताव मंजूर हो गया है तो कोशिश करेंगे जल्द से जल्द प्रोजेक्ट जमीन पर आए।
सी.बी.सिंह, निगमायुक्त

चार ईंच बरसात में बहे बाढ़ बचाव के इंतजाम


कोरी साबित हुई कागजी कवायदें, नालों से कब्जा हटाने के बजाय ऊंची सड़कें बनाकर कॉलोनियों को नाला डाला
इंदौर, विनोद शर्मा ।
चार दिन पहले तक बरसात के लिए बादलों की ओर तांकने वाले इंदौर में सोमवार और मंगलवार की शाम हुई बारीश से हालात बदले नजर आए। बरसात पूर्व जुटाए गए बाढ़ बचाव के इंतजामों की पोल मंगलवार शाम बस्तियों में तैरते बरतनों और ताल-तलैया बनी सड़कों ने खोल दी। इसके लिए नगर निगम और इंदौर विकास प्राधिकरण जो भी कारण गिनाए नदी-नालों के कब्जादारों पर नकेल कसने की नाकामी और बगैर स्ट्रॉम वॉटर डे्रन (एसडब्ल्यूडी) या डे्रनेज के बसाहट से ऊंची सड़कों जैसे अनियोजित विकास पर पर्दा नहीं डाल सकते। उधर, जानकार हर बार लगातार चेताते हैं कि हाल यही रहे तो भविष्य में चेतने लायक नहीं रहोगे लेकिन प्रशासनिक अमला है कि चेतता ही नहीं।
    5 से 8 जुलाई 2005, 7 अगस्त 2006 और 23 जुलाई 2009 की बरसात से आई बाढ़ को सबक बताते हुए हर बार हवाई योजनाओं से कागज रंग दिए गए। नालों पर कब्जा करने वालों से सख्ती से निपटने और बाणगंगा और गौरीनगर में ईंट भट्टों में बसे लोगों को हटाने की रणनीतियां बनी। बाढ़ में बहने वालों को बचाने के लिए सरकार ने नावें दिलाई। करोड़ों रुपए लगाकर चौपट डे्रनेज दुरुस्त की, चेम्बर बनाए लेकिन बाढ़ है कि आज भी बेकाबू है। कुल मिलाकर डिजास्टर मैनेजमेंट के सरकारी दावे खोखले साबित हुए। हाल-ए-हकीकत यह है कि ड्रेनेज दुरुस्त हुई नहीं। नदी-नालों की सफाई और कब्जादारों पर कार्रवाई निगम के अधिकारियों की कमाई बन गई। पानी निकासी के लिए बनाए गए दस्ते सूर्यअस्त होते ही शराब में मस्त हो गए।   
बाढ़-बचाव की सरकारी बतौलेबाजी
-- जुलाई 2005 में आई बाढ़ के बाद शुरू हुआ नालों का सफाई अभियान बाद में कमाई का जरिया बन गया।
-- नदी-नालों के किनारे 2000 अवैध निर्माण। शिवाजी मार्केट के नीचे खान नदी के किनारे बसे करीब सौ परिवारों को छोड़ बाकी को प्रशासन हटा नहीं पाया।
-- पंचशीलनगर में जाकर आवासीय इकाइयां बनाई जबकि शेखरनगर और तोड़ा की योजनाएं कागजों में दफन। अर्जुनपुरा की इकाइयां भी अधूरी।
-- आपातकालीन इंतजामों के तहत जुटाई गई नावें बनी शो-पीस।
-- कायदे से बरसात से पहले साफ होना चाहिए सीवरेज। नहीं होती। बेकलाइनों की हालत भी यही।
पूर्व:
बगैर सीवरेज के बढ़ी अवैध बसाहट
यहां भरता है पानी
वेलोसिटी से लगी रामकृष्णबाग, देवकीनगर, धीरजनगर, सोलंकीनगर, आदर्श मेघदूतनगर, मालवीयनगर कांकड़, बड़ी ग्वालटोली, बख्तावररामनगर। गणराजनगर, मुसाखेड़ी, शांतिनगर, स्कीम-94, विजयनगर, स्कीम-54, सुखलिया, गौरीनगर, रूपनगर।
क्यों भरा-
- रिंग रोड बनने से नालों का बहाव प्रभावित।
- नालों पर कब्जा,  कटी कॉलोनियां।
-नाले-बेकलाइनें चौक। 'यादातर कॉलोनियां अवैध, जल-मल निकासी के इंतजाम नहीं।
- समय पर साफ नहीं होते नाले।
सरकारी अनदेखी
- अवैध कॉलोनियों पर अंकुश नहीं। सोलंकीनगर और सुयश विहार कॉलोनियां नाले पर कटी।
- सीमेंट की सड़कें बना दी, सीवरेज से किया परहेज।
- नालों से अतिक्रमण हटाना तो दूर, बरसात से पहले सफाई तक नहीं की।
- वैध कॉलोनियां फैली, सीवरेज सिकुड़ गई।
- सड़कें ऊंची। मकान नीचे। इसीलिए घरों में भरता है पानी।
पश्चिम
 कॉलोनी में गड्ढे नहीं, गड्ढे में कॉलोनियां
यहां भरा पानी
कुलकर्णी भट्टा, भागीरथपुरा, कुशवाहनगर, भगतसिंहनगर, जगदीशनगर, बड़ा बांगड़दा, शिक्षकनगर, कालानीनगर, चंदननगर, गायत्रीनगर, नगीननगर, इंदिरानगर, समाजवादी इंदिरानगर, एमओजी लाइन, टोरी कॉर्नर, कलालकुई, चंद्रभागा, तोड़ा, शेखरनगर, कबूतरखाना,
क्यों भरा
- जगदीशनगर-भगतसिंहनगर और कुशवाहनगर में ईंट के भट्टे, गड्ढों में बसाहट और नालों पर कब्जे के साथ ऊंची सड़कें बड़ा कारण।
- नदी किनारे बसा है शेखरनगर, तोड़ा और भागीरथपुरा।
- शिक्षकनगर, राजमोहल्ला में सड़कें ऊंची। नालियां खत्म। ड्रेनेज चौक। बीएसएफ क्षेत्र के बहाव का ढाल कालानीनगर में।
- बगैर डे्रनेज के बसी हैं चंदनगर और बाणगंगा की 50 से 'यादा बस्तियां। पाइप डालकर नाला बंद करने से लोहापट्टी-टोरी कार्नर और तंबोली बाखल में भरता है पानी ही पानी।
- मध्य क्षेत्र का डे्रनेज सिस्टम सात दशक पुराना। लाइने चौक और चेम्बर जर्जर हैं। क्षमता से सौ गुना दबाव। इसीलिए जरासी बरसात में लाइनें दे जारी है जवाब।
सरकारी अनदेखी
-  बाणगंगा-चंदननगर सीवरेज और नालियों जैसी बुनियादी सुविधाओं से परहेज।
- सीवरेज प्रोजेक्ट के नाम पर शहरसीमा से लगे आबादीविहीन इलाकों में डली लाइनें लेकिन मध्य क्षेत्र के मौजूदा सिस्टम को अपग्रेटड करने या नई लाइनें डालने की फिक्र नहीं।
- आंखें बंद करके नदी किनारे बसने दी शेखरनगर, तोड़ा, भागीरथपुरा की बसाहट।
-  बाणगंगा में ईंट भट्टों पर नहीं अंकुश। जिन्हें खदेड़ा वे गड्ढों में कॉलोनी काट गए। हर साल हटाते हैं परिवार, मकानों पर कार्रवाई नहीं।
- कब्जों के कारण नाला बनकर रह गई खान नदी।
उत्तर
निगम ने व्यवस्थित नहीं रखी प्राधिकरण की पूंजी
यहां भरा पानी
लसूडिय़ा चौराहा, गुलाबबाग, स्कीम-114, 78 और 74 के साथ कबीटखेड़ी।
क्यों भरा-
- रिंग रोड और एबी रोड पर अब तक स्ट्रॉम वॉटर डे्रन नहीं है। जो ड्रेन है उसकी सफाई नहीं होती। चेम्बर चौक हैं।
-लसूडिय़ा चौराहे पर एक ओर भरता है पानी ही पानी। निकासी की जगह नहीं। इसीलिए चौराहा भी लबालब।
- स्कीम-114, 78 और 74 में प्राधिकरण ने डे्रनेज लाइन तो डाली थी लेकिन क्षमता से 'यादा दबाव के कारण मामला ठप।
सरकारी अनदेखी
- सड़कें बनाई लेकिन बरसाती पानी निकासी की व्यवस्था नहीं की।
- प्राधिकरण से हस्तांतरित होने के बाद निगम ने सीवरेज सुधार पर नहीं दिया जोर।
- सड़कें यहां भी बसाहट से ऊंची।
दक्षीण
कॉलोनियों-कारखानों ने नदी को नाला बना दिया
यहां भरा पानी
रेडियो कॉलोनी, आजादनगर, संवादनगर, मुराई मोहल्ला, पालदा, चितावद कांकड़,  स्नेहनगर, खातीवाला टैंक, ट्रांसपोर्टनगर, शिवमपुरी, अमितेशनगर की नीचला हिस्सा, बिजलपुर,
क्यों भरा
- रेडियो कॉलोनी में ऊंची-नीची है बसाहट। नर्मदा की मेनलाइन रोक रही है बहाव, इसीलिए संवादनगर में भरता है पानी। संवादनगर के पीछे स्टॉपडेम से आजादनगर में आती है बाढ़।
- स्नेहनगर और लोहामंडी में नीची सड़क, कगाी और चोपट है डे्रेनेज।
- नालियों पर निर्माण।
- पालदा-चितावद और ट्रांसपोर्टनगर में सीवरेज नहीं।
- प्रकाशनगर और नवलखा का ढाल संवादनगर में।
सरकारी अनदेखी
- 2006-07 में नदी में नाव चलाने के नाम पर हुई आधी-अधूरी सफाई के बाद आज तक नहीं हुई सफाई।
- अवैध कब्जों के कारण नाला बनकर रह गई नदी।
- पालदा और चितावद में कारखानों का नालों पर कब्जा है जो निगम को दिखाई नहीं देता।
- शिवमपुरी और अमितेशनगर में बरसाती पानी निकासी की जगह नहीं।
क्या कहते हैं जानकार
तो तबाह हो जाएगा इंदौर
शासन और जनता ने नदी-नालों और उन तक पानी पहुंचाने वाले ढलानों पर अतिक्रमण करने में कोर-कसर नहीं छोड़ी। लोगों ने भी भराव करके ओटले खड़े करे और  सड़क को नाली बना डाला। सड़कों-चौराहों पर बनी पुरानी जितनी भी पुल-पुलियाएं थीं बंद हो चुकी हैं। कुल मिलाकर इंदौर में इंजीनियरिंग के मूलभूत सिद्धांतों के विपरीत काम हो रहा है। हालात यही रहे तो जिस दिन मुंबई-दिल्ली की तरह 15-20 ईंच बरसात एक झटके में हुई उस दिन इंदौर का तबाह होना तय है।
अतूल सेठ, इंजीनियर
प्लींथ लेवल पर बने सड़कें
- नई सड़कें प्लींथ लेवल (जिस लेवल पर आसपास की बसाहट है) के हिसाब से बनाई जाना चाहिए। कारण- आप सड़क ऊपर-नीचे कर सकते हैं लेकिन बसाहट को नहीं। कई बार ऐजेंसियां कहती है सड़क नीचे रहे तो लोगों के घर का पानी जमा होता है। इससे निपटने के लिए ऐजेंसियां सेंटर से उठाकर सड़क के दोनों ओर ढाल दें और ड्रेनेज लाइन डालकर निकासी की व्यवस्था कर सकती हैं।
एच.एस.गोलिया, प्रोफेसर, एसजीआईटीएस
बरसाती पानी निकासी के बिना जीता इंदौर
- मध्यक्षेत्र में सीवरेज आजादी से पहले की। वहां मल्टीस्टोरी बनने से बेकाबू हुए हालात। निर्माणाधीन योजनाओं ने भी बढ़ाया बहाव में अवरोध। मौजूदा इंतजाम कारगर नहीं। अतिक्रमण हटाकर नालों को मूल स्वरूप देने की कोई योजना नहीं। सीवरेज प्रोजेक्ट के तहत सिटी की लाइनें पहले डाली जाना थी। लोगों ने बरसात का पानी डे्रनेज में जोड़ दिया। ड्रेनेज की क्षमता नहीं।
एसके बायस, पूर्व सिटी इंजीनियर नगर निगम

खदानों के खेल में 'राजपुत्रÓ खिलाड़ी


-- इंदौर में मंत्रीपुत्र ने खोदी जमीन तो धार में सांसद के भतीजे और उसके दोस्तों ने सरकारी जमीन पर किया कब्जा
 इंदौर, सिटी रिपोर्टर ।

रसूखदारों की रं"दारी और खिदमतगार अफसरों के संरक्षण ने खदानों के नाम पर जमीनी सेंधमारी के अवैध कारोबार को आसमानी बुलंदी दे दी। सत्ता में बैठे राजनीतिक रंगदारों और उनके परिजनों ने अपने रौब का पूरा फायदा उठाया। इंदौर के हातोद में विवादित मंत्री कैलाश विजयवर्गीय के बेटे ने मंजूरी से 'यादा खुदाई की। वहीं धार के धांकदार भाजपाई प्रशांत वर्मा और उनके साथियों ने महापुरा की विवादित जमीन को खदान बना डाला। प्रशांत धार के सांसद विक्रम वर्मा का भतीजा है।
आकाश की कंपनी ने खोदी सरकारी जमीन
हातोद की जिस जमीन पर सरकारी दफ्तर और कॉलेज बनना था उसे अधिकारियों की मिलीभगत से जमीन के जालसाजो ने खदान बना डाला। खदान सूर्या इन्फ्रावेंचर प्रा.लि. की है जिसके कर्ताधर्ता आकाश विजयवर्गीय हैं। आकाश सौ करोड़ के सुगनीदेवी जमीन लीज घोटाले में आरोपों से घिरे उद्योगमंत्री कैलाश विजयवर्गीय के बेटे हैं। सूर्या सब कॉन्ट्रेक्टर के रूप में दिलीप बिल्डकॉन से ठेका लेकर इंदौर-देपालपुर रोड बना रहा है। इसीलिए उसे गिट्टी-मुरम की जरूरत पूरी करने के लिए खदान खोदी।
    किस्सा हातोद स्थित सर्वे नं. 538 का है। दस हेक्टेयर में फैली इस जमीन के दो हेक्टयेर (9 एकड़) हिस्से में मार्च-अपै्रल 2010 को यहां खुदाई की मंजूरी दी गई। इस जमीन पर सरकारी दफ्तर और कॉलेज बनना था। मंत्री की मंशा और उनके रूदबे से वाकीफ पूर्व कलेक्टर और खनिज अधिकारी संजय लूणावत ने नियमों को तांक पर रखकर मनमाने ढंग से यह मंजूरी दी। मंजूरी दिलीप बिल्डकॉन को दी गई। क्षेत्रीय पार्षद, पटवारी, तहसीलदार और जिला पंचायत अध्यक्ष सहित कई लोगों की आपत्तियों के बावजूद आला अधिकारियों ने मामला रफादफा कर दिया। पिता के दबदबे और अफसरों के संरक्षण का आकाश ने भरपूर फायदा उठाया। उनकी कंपनी ने जितनी अनुमति ली, उससे 'यादा खुदाई की। हालात यह है कि 27 रुपए प्रति घनमीटर के हिसाब से मंजूरी मुरम के लिए दी गई थी लेकिन बगैर किसी अनुमति के कंपनी अगस्त तक गिट्टी की खुदाई करती रही। जबकि गिट्टी की रॉयल्टी 44 रुपए प्रति घनमीटर है। अंतर सीधे 17 रुपए घनमीटर का। दादागिरी इतनी कि भूले-बिसरे यदि कोई अधिकारी मौके पर पहुंचा तो भी उसे डरा-धमकाकर भगा दिया गया।
आपत्तियों की अनदेखी
राजस्व अधिकारियों की रिपोर्ट ने पहले ही दौर में खदान की खुदाई खारिज कर दी थी। उनका कहना था कि जमीन चरनोई की है। यहां मिट्टी 'यादा है। मुरम या गिट्टी के लिए खुदाई 'यादा करना पड़ेगी। इससे यहां दफ्तर और कॉलेज बनाने की योजना प्रभावित होगी। जवाब में कलेक्टर श्रीवास्तव ने यह कहकर आपत्ति खारिज कर दी थी कि ऐसे आपत्ति लेते रहे तो रोड कैसे बनेगी।
मंजूरी से कम में किया काम
हातोद में आपत्तियों के बावजूद खदान दी गई?
कोई आपत्ति नहीं थी। तहसीलदार की अनुसंशा के बाद दी मंजूरी।
खदान में मंजूरी से 'यादा की गई खुदाई?
शिकायतें मिली थी लेकिन जांच कराई तो ऐसा कुछ नहीं निकला।
क्या कहती है आपकी जांच रिपोर्ट?
रिपोर्ट के अनुसार मंजूरी से कम में किया काम।
संजय लुणावत, खनिज अधिकारी
अनुसंशा नहीं, हमने आपत्ति ली थी
क्या आपने अनुसंशा की थी?
नहीं, उलटा हमने तो आपत्ति ली थी।
क्या थी आपत्ति?
जमीन पर तहसील कार्यालय बनना है। जमीन चरनोई की है। इसीलिए खदान की मंजूरी न दी जाए।
बावजूद इसके मंजूरी दी?
पूर्व अधिकारियों का कहना था कि मंजूरी नहीं देंगे तो रोड कैसे बनेगा।
क्या कंपनी ने जरूरत से 'यादा खुदाई की?
इसकी जानकारी नहीं। हां, कंपनी ने काम बंद कर रखा है।
विजय खरे, तहसीलदार हातोद



धार : भाजपाई रसूखदारों की धांक
इंदौर की तरह अपने रौब-रुदबे को भुनाकर सरकारी जमीनों पर अपने मालिकाना हक की तख्ती टांगने वाले धार जिले में भी कम नहीं है। महापुरा में नर्मदा किनारे की उस जमीन को रसूखदारो ने रेत की खदान बना डाली जो जिला प्रशासन द्वारा मप्र खनिज निगम को हस्तांतरित की जाना थी। खुदाई खलघाट निवासी अनिल मालवीय के नेतृत्व में हो रह है। भाजपा के सांसद विक्रम वर्मा के भतीजे प्रशांत वर्मा और विधायक रंजना बघेल के नजदीकी जयदीप भैया अनिल के पार्टनर हैं।
    मामला नर्मदा से लगे धार के महापुरा गांव का है। धमरपुरी से लगा यह गांव गोगावां पंचायत का हिस्सा है। यहां सर्वे नं. 127 (रकबा 9.067 एकड़) राजस्व रेकॉर्ड में सरकारी जमीन है। जमीन पर अनिल और प्रशांत की फर्म बालू रेती का खनन कर रही है। बगैर किसी सक्षम स्वीकृति के। सिर्फ पंचायत के अनापत्ति प्रमाण-पत्र के आधार पर। एनओसी 4 सितंबर 2010 की है जबकि खुदाई करते दो महीनें हो चुके हैं। लोगों की शिकायत पर 'पत्रिकाÓ ने मौके का जायजा लिया तो वहां अनिल के साथ प्रशांत भी मौके पर था। 'पत्रिकाÓ के पास इसकी वीडियो फूटेज भी मौजूद है। क्षेत्रवासियों ने बताया शिकायत धार कलेक्टर बी.एम.शर्मा और खनिज अधिकारी एम.एस. खतेडिय़ा को हुई लेकिन भाजपाई रसूखदारों के आगे इनके सूर बदले नजर आए। खतेडिय़ा ने तो अपना पल्ला झाड़ते हुए यहां तक कह दिया कि जमीन खनिज निगम को सौंप दी है और ये निगम के ही ठेकेदार हैं। उधर, क्षेत्रीय पटवारी डी.एम.शर्मा कहते हैं कि सर्वे 125 और 127 की अनुमति मांगी थी। अनुमति मिल जाती तो आवंटन पत्र मुझे भी मिल जाता जो नहीं मिला।
अफसरों की अनदेखी ले चुकी है जान
नर्मदा किनारे अवैध रेत खदानों का खेल नया नहीं, पूराना है। 18 मई 2009 को रेत खदान धंसने से चार मजदूर दब गए थे। हादसा जलकोटी से करीब दो किमी दूर उस वक्त हुआ जब खदान में 30 मजदूर थे। अचानक खदान धंसने से भूरीबाई पिता बालू भील (16), रणजीत पिता नानका भील (16) निवासी जहांगीरपुर, गुजरीबाई पति रमेश भील (30) निवासी खुटामोड़ एवं कविताबाई पति गणेश (22) बावड़ीपुरा की मौत हो गई। उस वक्त भी खनिज अधिकारी एम.एस.खेतडिय़ा ने पल्ला झाड़ लिया था। मृतकों के परिजनों का आरोप है कि खतेडिय़ा की खदानों पर बंधी बंदी है। इसीलिए उन्हें खदाने नजर नहीं आती।
क्यों ली ग्रामीणों ने आपत्ति
खदान नर्मदा के किनारे है। खदान तक पहुंचने के लिए पूरा महापुरा गांव पार करना पड़ता है। तकरीबन 20 हजार से 'यादा की आबादी वाले इस गांव में सड़कें पहले ही बदहाल हैं। खदान शुरू हुई तो दिनभर ट्रक-डम्परों की अंधाधूंध दौड़ मची रहेगी जो गांव के बगाों के लिए जानलेवा साबित होगी।
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निगम को सौंपी जमीन, खदान मालिक निगम के ठेकेदार
अनिल और प्रशांत के खिलाफ शिकायत मिली थी। जांच कराने पर पता चला जमीन खनिज निगम को हस्तांरित कर दी है। कागजी कवायदें तकरीबन पूरी हो चुकी हैं। थोड़ी-बहुत औपचारिकता रही हैं। जो लोग खुदाई कर रहे हैं वे निगम के ही ठेकेदार हैं।
एम.एस.खतेडिय़ा, जिला खनिज अधिकारी
माइनिंग की मंजूरी दी ही नहीं जा सकती
महापुरा की जिस जमीन की आप बात कर रहे हैं वह निगम को हस्तांरित नहीं हुई है। जमीन जिला प्रशासन के पास है। जिला प्रशासन ने साल-दो साल पहले यहां माइनिंग की मंजूरी दे दी थी जिसके खिलाफ स्थानीय लोग हाईकोर्ट गए। हाईकोर्ट ने स्टे दे दिया। मामला विचाराधीन है। इसीलिए यहां माइनिंग की मंजूरी दी भी नहीं जा सकती।
राजीव सक्सेना, मप्र खनिज निगम



सीवरेज प्रोजेक्ट : 40 किलोमीटर लंबी लाइनों में सेंध


-- 165 की जगह डलेगी सिर्फ 125 किलोमीटर लंबी लाइन
-- कंपनियों को दिया रूट चार्ट
-- वर्कऑर्डर 442 करोड़ का, 210 करोड़ में काम समेटने की तैयारी
-- स्वीकारते हुए कहते हैं 210 नहीं, 320 करोड़ का होगा काम
इंदौर, सिटी रिपोर्टर ।
सड़कों की बदहाली का मुद्दा अंजाम तक पहुंचा भी नहीं कि घपले का जिन्न सीवरेज प्रोजेक्ट की बंद बोतल से बाहर आ गया। 'पत्रिकाÓ के हाथ लगे सुरागों की मानें तो सीवरेज प्रोजेक्ट का वर्कऑर्डर भले  165.08 किलोमीटर का जारी हुआ हो लेकिन लाइनें सिर्फ 125 किलोमीटर लंबी ही डलेंगी। जमीनी अंतर सीधे 40 किलोमीटर का। कौनसी साइट कम हुई? इसका जवाब निगम के उन नीति निर्धारकों के पास भी नहीं है जो काम की कटौती को निगम खजाने की बचत बता रहे हैं।
    नगर निगम ने मई 2008 में सीवरेज प्रोजेक्ट के तहत तीन क्षेत्रों के लिए दो कंपनियों को 442 करोड़ का वर्कऑर्डर जारी किया था। हैदराबाद की नागार्जुन कंस्ट्रक्शन कंपनी को 266 करोड़ में पूर्व और मध्य क्षेत्र में 100.58 किलोमीटर लंबी लाइन डालना थी। वहीं पश्चिम क्षेत्र की कमान सिम्पलैक्स को सौंपी गई। पश्चिम में 175 करोड़ में 65 किलोमीटर लंबी डाली जाना थी। सीवरेज लाइनों की गुणवत्ता शुरूआती दौर से विवादों में रही। इसकी बेहतरी को तवगाो देना तो दूर निगम के नीति निर्धारकों ने बालेबाले 39 किलोमीटर लंबी साइट ही कम कर डाली। साइटें कौनसी हैं? कम क्यों और किस आधार पर किया गया? जैसे सवालों के जवाब में नीति निर्धारक निगम का पैसा बचाने की दलीलें दे रहे हैं। हालांकि दलीलों को एमआईसी की अनुसंशा मिली न ही निगम परिषद की मंजूरी।
तब किया ताबड़तोड़ भुगतान, आज याद आई तंगी
निगम के जो अधिकारी आज तंगी की आड़ में काम में कटौती करके निगम का खजाना बचाने की दलीलें दे रहे हैं वे सबसे पहले 442 करोड़ के हिसाब से दोनों कंपनियों को मोबलाइजनेशन के लिए 44 करोड़ का अवैधानिक भुगतान कर चुके थे। इसमें 26.60 करोड़ रुपए एनसीसी और 17.50 करोड़ रुपए सिम्पलेक्स को  दिए गए थे। लोकायुक्त भुगतान की वैधता की जांच भी कर रहा है।
थोड़ा न बहुत अंतर सीधे 230 करोड़ का
एनसीसी को 266 करोड़ का वर्कऑर्डर दिया था। 58 किलोमीटर लाइन डलने के बाद 90 करोड़ की बीलिंग हो चुकी है। बमुश्किल 20 करोड़ की बीलिंग और होगी। अंतर कुल मिलाकर 156 करोड़ का। सिम्पलेक्स 175 करोड़ के वर्कऑर्डर देकर 72 करोड़ का भुगतान किया जा चुका है। बकाया काम के लिए 28 से 30 करोड़ की बिलिंग हुई तो भी मामला सौ करोड़ में सिमट जाएगा। बचेंगे 75 करोड़ रुपए। दोनों कंपनियों के कर्ताधर्ता निगम प्रशासन के मनमाने निर्णय से नाराज हैं। उनका कहना है कि वर्कऑर्डर के हिसाब से ही कंपनी ने इंदौर में इन्वेस्ट किया। मशीनरी स्थापित की। मैदानी अमला नियुक्त किया। लोगों का विरोध सहा। गालियां खाई। मार खाई। अब निगम काम में कटौती की बात करके हमारे साथ धोखा कर रहा है।
दोषी:- डीपीआर बनाने वाले या काम करने वाले?
लाइन में कटौती की वजह इंजीनियर अलाइनमेंट में लाइनों की लंबाई कम होना बताते हैं। इसे जानकार निगम इंजीनियरों की कोरी बहानेबाजी करार देते हैं। उनकी मानें तो डीपीआर किसी नौसीखिए ने नहीं बल्कि निगम के काबिल इंजीनियरों और कंसलटेंट की टीम ने तैयार की थी। इसे डीपीआर को नगर निगम से केंद्र सरकार तक सबने मंजूर किया। अलाइनमेंट के आधार पर ही योजना की लागत निर्धारित कराकर वर्कऑर्डर जारी किया गया। ऐसे में अब निगम के इंजीनियर यह कैसे कह सकते हैं कि अलाइमेंट की लंबाई कम हो गई।
अलाइनमेंट की लंबाई कम हो गई
-- क्या सीवरेज प्रोजेक्ट में काम की कटौती हुई है?
हां, अलाइमेंट की लंबाई कम होने के कारण काम तो कम हुआ ही है।
-- अलाइनमेंट क्यों कम हुआ?
मैदान में मशक्कतें बहुत है। उनको देखते हुए ही अलाइनमेंट में फेरबदल करना पड़ता है।
-- लागत पर कितना फर्क पड़ेगा?
442 करोड़ का काम 320 करोड़ तक निपट जाएगा। 120-122 करोड़ बचेंगे।
-- क्या कटौती की जानकारी एमआईसी या परिषद को दी गई?
नहीं , अभी तक 60 प्रतिशत काम हुआ है। जैसे-जैसे काम हो रहा है अलाइमेंट की वास्तविक्ता सामने आ रही है। जिस दिन अंतिम प्रारूप तैयार हो जाएगा, एमआईसी और परिषद को बता देंगे।
-- कंपनियों को अलाइनमेंट की जानकारी दे दी?
हां, उनके पास पहले से है।
हरभजन सिंह, प्रोजेक्ट इंचार्ज
पूर्व (एनसीसी)
वर्कऑर्डर - 58.57 किलोमीटर
स्कोप ऑफ वर्क- 39.99 किलोमीटर
अंतर- 18.58 किलोमीटर
मध्य क्षेत्र (एनसीसी)
वर्कऑर्डर - 42.01  किलोमीटर
स्कोप ऑफ वर्क- 28.96 किलोमीटर
अंतर- 13.05 किलोमीटर
पश्चिम क्षेत्र (एनसीसी)
वर्कऑर्डर - 64.50  किलोमीटर
स्कोप ऑफ वर्क- 57.00 किलोमीटर
अंतर- 7.50 किलोमीटर

किसानों की कब्र"ाह बनता मध्यप्रदेश



मध्य प्रदेश में फसल बर्बाद होने और कर्ज से परेशान किसानों की आत्महत्याओं का सिलसिला थम नहीं रहा है। प्रदेश में एक महीने में अब तक दस किसानों ने आत्महत्या की है। एक ओर मध्यप्रदेश प्रदेश सरकार खेती को जहां लाभ का धंधा बनाने का राग अलापती नहीं थक रही है वहीं सरकार द्वारा किसान कल्याण व कृषि संवर्धन के लिए चलाई जा रही योजनाओं में राजनीतिक भेदभाव और भ्रष्टाचार से किसानों को सरकार की प्रोत्साहनकारी और रियायती योजनाओं का लाभ भी नहीं मिल पा रहा है। प्रदेश में किसानों की हालत इस कदर बदहाल है कि कई सहकारी संस्थाओं ने किसानों को घटिया खाद-बीज के साथ ही कीटनाशकों की आपूर्ति कर किसानों को बेवजह कर्जदार बना दिया है तो वहीं खराब खाद-बीज और दवाइयों के कारण फसल भी चौपट हो गई, पर इंतहा तो तब हो गई जब प्रदेश के पीडि़त किसानों को सरकार भी न्याय दिलाने में असफल रही। हालांकि केंद्र सरकार ने कुछ गणग्रस्त किसानों के कर्ज माफ कर दिए और इसके लिए रा'य सरकार को प्रतिपूर्ति भी की, किन्तु मध्यप्रदेश में सहकारी संस्थाओं में घोटालों के कारण करीब 115 करोड़ रुपए के कृषि गण माफ नहीं हो पाए।
प्रदेश किसान का हाल क्या है, यह उसके अंदाज को देखकर ही लगाया जा सकता है, खेती के दिनों में किसानों को अपनी मांगों को मंगवाने के लिए राजधानी की सड़कों पर हाथ में डंडा लेकर उतरना पड़ा। प्रदेश में किसान गुस्से से भरा हुआ है और राष्ट्र्रीय स्वयं सेवक संघ से नाता रखने वाले भारतीय किसान संघ ने किसानों की समस्या को लेकर भोपाल में प्रदर्शन किया तो उसका गुस्सा सड़कों पर फूट पड़ा। किसानों ने भोपाल की रफ्तार ही थाम दी। किसानों का आंदोलन सरकार को यह एहसास करा रहा है कि वह गांव, किसान तथा गरीब को खुशहाल करने का नारा देने में पीछे नहीं रहती और यही किसान अपनी समस्याओं से इतना आजिज आ चुका है।
प्रदेश अब दूसरा विदर्भ बनने की कगार पर है। यह तब हो रहा है, जबकि किसान का बेटा प्रदेश में राज कर रह है। पिछले 10 सालों में 15000 किसान आत्महत्या कर चुके हैं। आत्महत्याओं के साथ एक बार फिर यह बहस उपजी है कि क्या कारण है कि धरती की छाती को चीरकर अन्न उगाने वाले किसान, हम सबके पालनहार को अब फांसी के फंदे या अपने ही खेतों में छिड़कने वाला कीटनाशक 'यादा भाने लगा है। दरअसल अभी तक किसानों की आत्महत्या के मामले में महाराष्ट्र, आंध्रप्रदेश और कर्नाटक का जिक्र आता रहा है, लेकिन वास्तविकता इससे बहुत परे है। मध्यप्रदेश में विगत 10 वर्षों में किसानों की आत्महत्याओं में लगातार इजाफा हुआ है। प्रदेश में विगत 10 वर्षों में 14155 से भी 'यादा किसानों ने आत्महत्या की है।
प्रदेश में विधानसभा चुनावों के मद्देनजर मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने प्रदेश के किसानों से 50,000 रुपया कर्ज माफी का वादा किया था, लेकिन प्रदेश सरकार ने उसे भुला दिया। अब किसानों पर कर्ज का बोझ है। दूसरी ओर भारत सरकार के आर्थिक सर्वेक्षण (2008-09) की रिपोर्ट कहती है कि देश के कई रा'यों में समर्थन मूल्य लागत से बहुत कम है, मध्यप्रदेश में भी कमोबेश यही हाल है। हालांकि सरकार यह बता रही है कि हमने विगत दो सालों में समर्थन मूल्य बढ़ा दिया है। लेकिन इस बात का विश्लेषण किसी ने नहीं किया कि वह समर्थन वाजिब है या नहीं। समर्थन मूल्य अपने आप में इतना समर्थ नहीं है कि वह किसानों को उनकी फसल का उचित दाम दिला सके। ऐसे में खेती घाटे का सौदा बनती जाती है, किसान कर्ज लेते हैं और न चुका पाने की स्थिति में फांसी के फंदे को गले लगा रहे हैं। हालांकि सरकार यह बता रही है कि हमने विगत दो सालों में समर्थन मूल्य बढ़ा दिया है। लेकिन इस बात का विश्लेषण किसी ने नहीं किया कि वह समर्थन मूल्य वाजिब है या नहीं? कहीं ऐसा तो नहीं कि समर्थन मूल्य लागत से कम आ रहा है? वह लागत से कम आ भी रहा है, लेकिन फिर भी सरकार ने इस वर्ष बोनस 100 रुपए से घटाकर 50 रुपए कर दिए। किसान की बेबसी की जरा इससे तुलना कीजिए कि वर्ष 1970-71 में जब गेहूं का समर्थन मूल्य 80 पैसे प्रति किलोग्राम था तब डीजल का दाम 76 पैसे प्रति लीटर था, लेकिन आज जबकि मशीनी खेती हो रही है और डीजल का दाम 36 रुपए प्रति लीटर है, तब गेहूं का समर्थन मूल्य 11 रुपए प्रति किलोग्राम हुआ है। यानी तब किसान को एक लीटर डीजल के लिए केवल एक किलो गेहूं लगता था अब उसे उसी एक लीटर डीजल के लिए साढ़े तीन किलो गेहूं चुकाना होता है।
किसानी धीरे-धीरे घाटे का सौदा होती जा रही है। बिजली के बिगड़ते हाल, बीज का न मिलना, कर्ज का दबाव, लागत का बढऩा और सरकार की ओर से न्यूनतम समर्थन मूल्य का न मिलना आदि यक्ष प्रश्न बनकर उभरे है। सरकार एक ओर तो एग्रीबिजनेस मीट कर रही है, लेकिन दूसरी ओर किसानी गर्त में जा रही है। किसान कर्ज के फंदे कराह रहा है। समय रहते खेती और किसान दोनों पर ध्यान देने की महती आवश्यकता है, नहीं तो अपने वाले समय में किसानों की आत्महत्याओं की घटनाएं और बढ़ेंगी और हम विदर्भ की तरह वहां भी मुंह ताकते रहेंगे।
छत्तीसगढ़ के स्वतंत्र होने के साथ ही प्रदेश में बिजली खेती-किसानों के लिए प्रमुख समस्या बन गई है। प्रदेश में विद्युत संकट बरकरार है। सरकार ने अभी हाल ही में हुए विधानसभा चुनाव के समय ही अतिरिक्त बिजली खरीदी थी, उसके बाद फिर वही स्थिति बन गई है। प्रदेश में किसान को बिजली का कनेक्शन लेना रा'य सरकार ने असंभव बना दिया है। उद्योगों की तरह ही किसानों को खंबे का पैसा, ट्रांसफार्मर और लाइन का पैसा चुकाना पड़ेगा, तब कहीं जाकर उसे बिजली का कनेक्शन मिलेगा। बिजली तो तब भी नहीं मिलेगी, लेकिन बिल लगातार मिलेगा। बिल नहीं भरा तो बिजली काट दी जाएगी, केस बनाकर न्यायालय में प्रस्तुत किया जाएगा यानी किसान के बेटे के राज में किसान को जेल भी हो सकती है। घोषित और अघोषित कुर्की भी चिंता का कारण है। ऐसा नहीं कि सरकार के पास राशि की कमी थी, बल्कि सरकार के पास इ'छाशक्ति की कमी थी। गांवों में बिजली पहुंचाने के लिए भारत सरकार ने दो अलग-अलग योजनाओं में रा'य सरकार को पैसा दिया था। पहली योजना है राजीव गांधी गांव-गांव बिजलीकरण योजना, जबकि दूसरी योजना है सघन बिजली विकास एवं पुनर्निर्माण योजना। राजीव गांधी योजना के लिए रा'य सरकार को वर्ष 2007-08 में 158।21 करोड़, वर्ष 2008-09 में 165।11 करोड़ रुपए मिले। इसी प्रकार सघन बिजली विकास एवं पुनर्निर्माण योजना में भी वर्ष 2007-08 व 2008-09 में क्रमश: 283।11 व 374।13 करोड़ रुपए रा'य सरकार के खाते में आए। कुल मिलाकर दो वर्षों में 980।56 करोड़ रुपए रा'य सरकार को बिजली पहुंचाने के लिए उपलब्ध हुए, लेकिन इसके बाद भी रा'य सरकार ने किसानों को कोई राहत नहीं दी और न ही भारत सरकार की इस राशि का उपयोग कर बिजली पहुंचाई। इतनी राशि का उपयोग कर किसानों को बिजली उपलब्ध कराई जा सकती थी, लेकिन वास्तव में ऐसा हुआ नहीं। प्रदेश के हजारों किसानों के विद्युत प्रकरण न्यायालय में दर्ज किए गए।
राष्ट्रीय अपराध अभिलेख ब्यूरो की मानें तो प्रदेश में प्रतिदिन 4 किसान आत्महत्या कर रहे हैं। ऐसा नहीं है कि यह मामला केवल इसी साल सामने आया है, बल्कि वर्ष 2001 से यह विकराल स्थिति बनी है। विश्लेषण करें तो हम पाते हैं कि मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ दोनों पड़ोसी राज्यों में कमोबेश एक सी स्थिति है। यह स्थिति इसलिए भी तुलना का विषय हो सकती है, क्योंकि दोनों राज्यों की भौगोलिक परिस्थितियां लगभग एक सी हैं। खेती करने की पद्धतियां, फसलों के प्रकार भी लगभग एक से ही हैं। मध्यप्रदेश ने वर्ष 2003-04 में भी सूखे की मार झेली थी और तब किसानों की आत्महत्या का ग्राफ बढ़ा था। विगत दो-तीन वर्षों में भी सूखे का प्रकोप बढ़ा है तो हम पाते हैं कि वर्ष 2005 के बाद प्रदेश में किसानों की आत्महत्याओं में बढ़ोतरी हुई है। हम यह सोचकर खुश होते रहे हैं कि हमारे राज्य में महाराष्ट्र, आंध्रप्रदेश व कर्नाटक की तरह भयावह स्थिति नहीं है, लेकिन हमें यह भी देखना होगा कि इन राज्यों की स्थितियां हमसे काफी भिन्न हैं और यदि आज भी ध्यान नहीं दिया गया तो प्रदेश की स्थिति और भी खतरनाक हो जाएगी।
वर्ष 2010 के प्रारम्भ से लेकर अब तक करीब एक हजार से अधिक किसानों ने आत्महत्या कर अपनी जान गंवा चुके हैं। और अन्नदाताओं की आत्महत्यों का यह दौर अनवरत जारी है। मध्य प्रदेश में किसान आए दिन मौत को गले लगा रहे हैं, लेकिन सरकार इस तथ्य को छिपाना चाहती है, फिर भी सच एक न एक दिन सामने आ ही जाता है। मध्यप्रदेश में किसानों की आत्महत्या का सबसे बड़ा कारण कर्ज है। इसके साथ ही बिजली संकट, सिंचाई के लिए पानी, खाद, बीज, कीटनाशकों की उपलब्धाता में कमी और मौसमी प्रकोप भी जिम्मेदार है, जिससे कृषि क्षेत्र बुरी तरह प्रभावित हो रहा है और किसान आत्महत्या को मजबूर है। खेती पर निर्भर किसानों को अपनी उपज का उचित मूल्य भी न मिलना शामिल है, जिससे वह कर्ज के बोझ में दबता चला जाता है।
किसानों की आत्महत्याओं के तात्कालिक प्रकरणों का विश्लेषण हमें इस नतीजे पर पहुंचाता है कि सभी किसानों पर कर्ज का दबाव था। फसल का उचित दाम नहीं मिलना, घटता उत्पादन, बिजली नहीं मिलना, परंतु बिल का बढ़ते जाना, समय पर खाद, बीज नहीं मिलना और उत्पादन कम होना और सरकारों द्वारा भी नकदी फसलों को प्रोत्साहन दिए जाने पर किसान परेशान हैं।
मप्र के किसानों की आर्थिक स्थिति के बारे में चौंकाने वाले आंकड़े सामने आ रहे हैं। प्रदेश के हर किसान पर औसतन 14 हजार 218 रुपए का कर्ज है। वहीं प्रदेश में कर्ज में डूबे किसान परिवारों की संख्या भी चौंकाने वाली है। यह संख्या 32,11,000 है। मप्र के कर्जदार किसानों में 23 फीसदी किसान ऐसे हैं, जिनके पास 2 से 4 हेक्टेयर भूमि है। साथ ही 4 हेक्टेयर भूमि वाले कृषकों पर 23,456 रुपए कर्ज चढ़ा हुआ है। कृषि मामलों के जानकारों का कहना है कि प्रदेश के 50 प्रतिशत से अधिक किसानों पर संस्थागत कर्ज चढ़ा हुआ है। किसानों के कर्ज का यह प्रतिशत सरकारी आंकड़ों के अनुसार है, जबकि किसान नाते/रिश्तेदारों, व्यावसायिक साहूकारों, व्यापारियों और नौकरीपेशा से भी कर्ज लेते हैं। जिसके चलते प्रदेश में 80 से 90 प्रतिशत किसान कर्ज के बोझ तले दबे हैं। 



जहरीली हो रही नर्मदा blog


देश की सबसे प्राचीनतम नदी नर्मदा का जल तेजी से जहरीला होता जा रहा है। अ"र यही स्थिति रही तो मध्यप्रदेश की जीवनरेखा नर्मदा अ"ले 10-12 सालों में पूरी तरह जहरीली हो जाएगी और इसके आसपास के शहरों-गांवों में बीमारियों का कहर फैल जाएगा। हाल ही मध्यप्रदेश प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड की ओर से नर्मदा के जल की शुध्दता जांचने के लिए किए गए एक परीक्षण में पता चला है कि नर्मदा तेजी से मैली हो रही है। तमाम शोध और अध्ययन बताते हैं कि नर्मदा को लेकर बनी योजनाओं से दूरगामी परिणाम सकारात्मक नहीं होंगे। भयंकर परिणामों के बावजूद नर्मदा समग्रÓ अभियान वाली हमारी सरकार नर्मदा जल में जहर घोलने की तैयारी क्यों कर रही है? यह विडंबना ही कही जाएगी कि मध्यप्रदेश की जीवनरेखा कही जाने वाली नर्मदा नदी जिसके पानी का भरपूर दोहन करने के लिए नर्मदा घाटी परियोजना के तहत 3000 से भी ज्यादा छोटे-बड़े बांध बनाए जा रहे हैं। वहीं एक सरकारी सर्वेक्षण के अनुसार नर्मदा नदी के तट पर बसे नगरों और बड़े गांवों के पास के लगभग 100 नाले नर्मदा नदी में मिलते हैं और इन नालों में प्रदूषित जल के साथ-साथ शहर का गंदा पानी भी बहकर नदी में मिल जाता है। इससे नर्मदा जल प्रदूषित हो रहा है। नगरपालिकाओं और नगर निगमों द्वारा गंदे नालों के ज़रिए दूषित जल नर्मदा में बहाने पर सरकार रोक नहीं लगा पाई है और न ही आज तक नगरीय संस्थाओं के लिए दूषित जल के अपवाह की कोई योजना बना पाई है। राज्य के 16 जि़ले ऐसे हैं जिनके गंदे नालों का प्रदूषित पानी नर्मदा में प्रदूषण के स्तर को बढ़ा रहा है। राज्य के 16 जि़ले ऐसे हैं जिनके गंदे नालों का प्रदूषित पानी नर्मदा में प्रदूषण के स्तर को बढ़ा रहा है। इसके अलावा पहाड़ी क्षेत्र के कटाव से भी नर्मदा में प्रदूषण बढ़ रहा है। कुल मिलाकर नर्मदा में 102 नालों का गंदा पानी और ठोस मल पदार्थ रोज़ बहाया जाता है, जिससे अनेक स्थानों पर नर्मदाजल खतरनाक रूप से प्रदूषित हो रहा है।
प्रचलित मान्यता यह है कि यमुना का पानी सात दिनों में, गंगा का पानी छूने से, पर नर्मदा का पानी तो देखने भर से पवित्र कर देता है। साथ ही जितने मंदिर व तीर्थ स्थान नर्मदा किनारे हैं उतने भारत में किसी दूसरी नदी के किनारे नहीं है। लोगों का मानना है कि नर्मदा की करीब ढाई हजार किलोमीटर की समूची परिक्रमा करने से चारों धाम की तीर्थयात्रा का फल मिल जाता है। परिक्रमा में करीब साढ़े सात साल लगते हैं। जाहिर है कि लोगों की परंपराओं और धार्मिक विश्वासों में रची-बसी इस नदी का महत्व कितना है। लेकिन दुर्भाग्य से जंगल तस्करों, बाक्साइट खदानों और हमारी विकास की भूख से यह वादी इतनी खोखली और बंजर हो चुकी है कि आने वाले दिनों में उसमें नर्मदा को धारण करने का साम्र्थय ही नहीं बचेगा। इसकी शुरुआत नर्मदा के मैलेपन से हो चुकी है।
सरकार का जल संसाधन विभाग और प्रदूषण नियंत्रण मंडल नदी जल में प्रदूषण की जांच करता है और प्रदूषण स्तर के आंकड़े कागज़़ों में दर्ज कर लेता है, लेकिन प्रदूषण कम करने के लिए सरकार कोई भी गंभीर उपाय नहीं कर रही है। सरकारी सूत्रों से प्राप्त जानकारी के अनुसार अमरकंटक और ओंकारेश्वर सहित कई स्थानों पर नर्मदा जल का स्तर क्षारीयता पानी में क्लोराईड और घुलनशील कार्बनडाईऑक्साइड का आंकलन करने से कई स्थानों पर जल घातक रूप से प्रदूषित पाया गया। भारतीय मानक संस्थान ने पेयजल में पीएच 6.5 से 8.5 तक का स्तर तय किया है, लेकिन अमरकंटक से दाहोद तक नर्मदा में पीएच स्तर 9.02 तक दर्ज किया गया है। इससे स्पष्ट है कि नर्मदाजल पीने योग्य नहीं है और इस प्रदूषित जल को पीने से नर्मदा क्षेत्र में गऱीब और ग्रामीणों में पेट से संबंधित कई प्रकार की बीमारियां फैल रही है, इसे सरकारी स्वास्थ्य विभाग भी स्वीकार करता है। जनसंख्या बढऩे, कृषि तथा उद्योग की गतिविधियों के विकास और विस्तार से जल स्त्रोतों पर भारी दबाव पड़ रहा है। ज्
उगेखनीय है कि नर्मदा मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र और गुजरात राज्यों में बहती हैं लेकिन नदी का 87 प्रतिशत जल प्रवाह मध्यप्रदेश में होने से, इस नदी को मध्यप्रदेश की जीवन रेखा कहा जाता है. आधुनिक विकास प्रक्रिया में मनुष्य ने अपने थोड़े से लाभ के लिए जल , वायु और पृथ्वी के साथ अनुचित छेड़-छाड़ कर इन प्राकृतिक संसाधनों को जो क्षति पहुंचाई है, इसके दुष्प्रभाव मनुष्य ही नहीं बल्कि जड़ चेतन जीव वनस्पतियों को भोगना पड़ रहा है. नर्मदा तट पर बसे गांव, छोटे-बड़े शहरों, छोटे-बड़े औद्योगिक उपक्रमों और रासायनिक खाद और कीटनाशकों के प्रयोग से की जाने वाली खेती के कारण उदगम से सागर विलय तक नर्मदा प्रदूषित हो गई है और नर्मदा तट पर तथा नदी की अपवाह क्षेत्र में वनों की कमी के कारण आज नर्मदा में जल स्तर भी 20 वर्ष पहले की तुलना में घट गया है.

ऐसे में नर्मदा को प्रदूषण मुक्त करना समय की सबसे बड़ी ज़रूरत बन गई है, लेकिन मध्यप्रदेश, गुजरात और महाराष्ट्र की सरकारें औद्योगिक और कृषि उत्पादन बढ़ाने के लिए नर्मदा की पवित्रता बहाल करने में ज़्यादा रुचि नहीं ले रहे है.नर्मदा का उदगम स्थल अमरकंटक भी शहर के विस्तार और पर्यटकों के आवागमन के कारण नर्मदा जल प्रदूषण का शिकार हो गया है. इसके बाद, शहडोल , बालाघाट, मण्डला, शिवनी, डिण्डोरी, कटनी, जबल पुर, दामोह, सागर, नरसिंहपुर, छिंदवाड़ा, बैतूल , होशंगाबाद, हरदा, रायसेन, सीहोर, खण्डवा, इन्दौर, देवास, खरगोन, धार, झाबुआ और बड़वानी जिलों से गुजरती हुई नर्मदा महाराष्ट्र और गुजरात की ओर बहती है, लेकिन इन सभी जिलों में नर्मदा को प्रदूषित करने वाले मानव निर्मित सभी कारण मौजूद है. अमलाई पेपर मिल शहडोल, अनेक शहरों के मानव मल और दूषित जल का अपवाह, नर्मदा को प्रदूषित करता है. सरकार ने औद्योगीकरण के लि ए बिना सोचे समझे जो निति बनाई उससे भी नर्मदा जल में प्रदूषण बड़ा है, होशंगाबाद में भारत सरकार के सुरक्षा क़ागज़ कारखाने बड़वानी में शराब कारखानें, से उन पवित्र स्थानों पर नर्मदा जल गंभीर रूप से प्रदूषित हुआ है. गर्मी में अपने उदगम से लेकर, मण्डला, जबल पुर, बरमान घाट, होशंगाबाद, महेश्वर, ओंकारेश्वर, बड़वानी आदि स्थानों पर प्रदूषण विषेषज्ञों ने नर्मदा जल में घातक वेक्टेरिया और विषैले जीवाणु पाए जाने की ओर राज सरकार का ध्यान आकर्षित किया है.
इन सब के बावजुद अमरकंटक से खंभात की खाड़ी तक करीब 18 थर्मल पावर प्लांट लगाने की तैयारी है। जबलपुर से होशंगाबाद तक पांच पावर प्लांट को सरकारों ने मंजूरी दे दी है। इनमें सिवनी जिले के चुटका गांव में बनने वाला प्रदेश का पहला परमाणु बिजली घर भी शामिल है। यह बरगी बांध के कैचमेंट एरिया में है। परमाणु ऊर्जा का मुख्य केंद्र रहा अमेरिका अब परमाणु कचरे का निष्पादन नहीं कर पा रहा है। इसके बावजूद भारत में इन परियोजनाओं से निकलने वाले परमाणु कचरे की निष्पादन की बात सरकारें नहीं कर रही हैं। इन परियोजनाओं के लिए नर्मदा का पानी देने का करार हुआ है। नरसिंहपुर के पास लगने वाले पावर प्लांट की जद में आने वाली जमीन एशिया की सर्वोत्तम दलहन उत्पादक है। कोल पावर प्लांट के दुष्परिणामों का अंदाजा सारणी के आसपास जंगल और तवा नदी के नष्ट होने से लगाया जा सकता है। दो हजार हैक्टेयर में बनने वाले चुटका परमाणु पावर प्लांट की जद में 36 गांव आएंगे। इनमें से फिलहाल चुटका, कुंडा, भालीबाड़ा, पाठा और टाडीघाट गांव को हटाने की तैयारी है। निर्माण एजेंसी न्यूक्लियर पावर कारपोरेशन और स्थानीय प्रशासन इस बाबत नोटिस दे चुका है। 1400 मेगावाट क्षमता के दो रिएक्टर वाले इस प्लांट में 100 क्यूसेक पानी लगेगा। एक अनुमान के मुताबिक चुटका परमाणु पावर प्लांट में जितना पानी लगेगा, उससे हजारों हैक्टेयर खेती की सिंचाई की जा सकती है। परमाणु बिजली के संयंत्र के ईंधन के रूप में यूरेनियम का इस्तेमाल किया जाता है। इसकी रेडियोधर्मिता के दुष्परिणाम जन, जानवर, जल, जंगल और जमीन को स्थायी रूप से भुगतने पड़ते हैं। इसका अंदाजा रावतभाटा परमाणु संयंत्र की अध्ययन रिपोर्ट से लगाया जा सकता है।
जानकारों के मुताबिक परमाणु कचरे की उम्र 2.5 लाख वर्ष है। इसे नष्ट करने के लिए जमीन में गाड़ दिया जाए तो भी यह 600 वर्ष तक बना रहता है। इस दौरान भूजल प्रदूषित करता है। चुटका में प्लांट बनने से नर्मदा व सहायक नदियों के प्रदूषित होने की आशंका है। इतना ही नहीं, भूकंप की आशंका भी बढ़ जाती है। वहीं, चुटका में निर्माण एजेंसी अपनी आवासीय कॉलोनी प्लांट से करीब 14 किलोमीटर दूर बना रही है। प्लांट के लिए भूमि सर्वे और भूअर्जन की कोशिश जारी है, लेकिन आदिवासी और मछुआरे हटने को तैयार नहीं हैं। दरअसल ये सभी बरगी से विस्थापित हैं। हालांकि कंपनी के इंजीनियर करीब 40 फीट गहरा होल करके यहां की मिट्टी और पत्थरों का अध्ययन कर चुके हैं।
राजस्थान में चंबल नदी पर बने 220 मेगावाट के रावतभाटा परमाणु बिजली घर के 20 साल बाद आसपास के गांवों की सर्वे रिपोर्ट के मुताबिक परमाणु बिजली घर से होने वाले प्रदूषण के घातक परिणाम लोगों को भुगतने पड़ रहे हैं। संपूर्ण क्रांति विद्यालय बेड़छी, सूरत की इस रिपोर्ट के मुताबिक आसपास के गांवों में जन्मजात विकलांगता के मामले बढ़े हैं। प्रजनन क्षमता प्रभावित होने से निसंतान युगलों की संख्या बढ़ी है। हड्डी का कैंसर, मृत और विकलांग नवजात, गर्भपात और प्रथम दिवसीय नवजात की मौत के मामले तेजी से बढ़े हैं। वहीं लोगों की रोग प्रतिरोधक क्षमता भी प्रभावित हुई है। जन्म और मृत्यु के आंकड़ों का विश्लेषण करने पर सामने आया कि यहां औसत आयु करीब 12 वर्ष कम हो गई है। लंबे अर्से का बुखार, असाध्य त्वचा रोग, आंखों के रोग, कमजोरी और पाचन संबंधी गड़बडिय़ां भी बढ़ी हैं। इन 20 वर्षों में बारिश के दिनों में हवा में सबसे अधिक प्रदूषण छोड़ा गया। इससे इन गांवों का पानी भी काफी प्रदूषित हो गया है। 220 मेगावाट केे प्लांट से 20 सालों में यह स्थिति बनी है, जो 1400 मेगावाट के चुटका प्लांट से करीब 10 साल में निर्मित हो जाएगी। एक अन्य अध्ययन रिपोर्ट के मुताबिक कंपनियां जितना दावा करती हैं उतना उत्पादन किसी भी पावर प्लांट से नहीं हुआ है। वहीं, इस दावे के मुताबिक जंगल और कृषि भूमि स्थायी रूप से नष्ट की जा चुकी होती है। रिपोर्ट के मुताबिक 1000 मेगावाट तक की परियोजनाओं की निगरानी केंद्र और राज्य सरकारें नहीं करती है, जिससे ये गड़बडिय़ां और बढ़ जाती हैं। उक्त अध्ययन से जुड़ी पर्यावरणविद संघमित्रा देसाई का कहना है कि परमाणु बिजली घरों में यूरेनियम और भारी पानी के इस्तेमाल से ट्रीसीयम (ट्रीटीयम) निलकता है। यह हाईड्रोजन का रूप है। यह खाली होता है तो उड़कर हवा में मिल जाता है। पानी के साथ होने पर जल प्रदूषित करता है। मानव शरीर इसे हाइड्रोजन के रूप में ही लेते हैं। इसका अधिकांश हिस्सा यूरिन के जरिए निकल जाता है, लेकिन जब यह किसी सेल में फंस जाता है तो कई घातक बीमारियां हो जाती हैं। रेडियो एक्टिविटी से पेड़ों को नुकसान होता है। परमाणु कचरे को नष्ट करना मुश्किल काम है। यह हजारों वर्ष तक बना रहता है। अमेरिका इस समस्या से जूझ रहा है।
थर्मल कोल पावर प्लांट से निकलने वाली राख से पानी इतना प्रदूषित हो जाएगा कि इसे मवेशी भी नहीं पी सकेंगे। 500 मेगावाट के सारणी स्थित सतपुड़ा थर्मल कोल पावर प्लांट से निकलने वाली राख से तवा नदी का पानी इसी तरह प्रदूषित हो चुका है। इसमें नहाने पर लोगों की चमड़ी जलती है और त्वचा रोग हो जाते हैं। इसकी राख के निस्तारण के लिए हाल ही हजारों पेड़ों की बलि चढ़ा दी गई, जबकि पहले से नष्ट किए गए जंगल की भरपाई नहीं की जा सकी है। इतने दुष्परिणामों के सामने आने के बावजूद मध्यप्रदेश में देवी स्वरूप नर्मदा के किनारे थर्मल कोल पावर प्लांट की अनुमति देना जनहित में नहीं है। नर्मदा में लाखों लोग डुबकी लगाकर पुण्य का अनुभव करते हैं। उनकी रूह भी इस पानी में नहाने के नाम से कांप उठेगी। राख से नर्मदा की गहराई पर भी असर होगा। वहीं गंगा के जहरीले होने के कारण सरकार ने हाल ही में यह निर्णय लिया है कि इसके किनारे अब ऐसा कोई निर्माण नहीं किया जाएगा, तो नर्मदा की चिंता क्यों नहीं की जा रही है?
नर्मदा के किनारे चार थर्मल पावर प्लांट को भी मंजूरी मिली है। सिवनी जिले की घनसौर तहसील के गांव झाबुआ में बनने वाले प्लांट की क्षमता 600 मेगावॉट होगी। निर्माण एजेंसी के आंकड़ों के मुताबिक इसमें प्रतिघंटा छह सौ टन कोयले की खपत होगी, जिससे 150 टन राख प्रतिघंटा निकलेगी, जबकि हकीकत यह है कि कोयले से 40 प्र्रतिशत राख निकलती है। इस तरह करीब 250 टन राख प्रतिघंटा निकलेगी। इसका निस्तारण जंगल और नर्मदा किनारे किया जाएगा, जिससे पर्यावरणीय संकट पैदा होना तय है। दूसरा कोल पावर प्लांट नरसिंहपुर जिले के गाडरवाड़ा तहसील के तूमड़ा गांव में एनटीपीसी द्वारा बनाया जाएगा। 3200 मेगावॉट क्षमता के इस प्लांट से नौ गांवों के किसानों की जमीन पर संकट है। इसके लिए करीब चार हजार हैक्टेयर जमीन ली जानी है, जबकि पास ही तेंदूखेड़ा ब्लाक में करीब 4500 एकड़ सरकारी जमीन खाली पड़ी है। इसका उपयोग नहीं किया जा रहा है। इस प्लांट की जद में आने वाले गांवों की जमीन एशिया में सबसे अज्छी दलहन उत्पादक है। तीसरा 1200 मेगावॉट क्षमता का थर्मल कोल पावर प्लांट जबलपुर जिले के शहपुरा भिटोनी में बनाया जाना है। इसका निर्माण एमपीईवी द्वारा किया जाएगा। इसका सर्वे किया जा चुका है। इसकी जद में करीब 800 किसानों की जमीन आ रही है। चौथा थर्मल पावर प्लांट नरसिंहपुर जिले के झासीघाट में मैसर्स टुडे एनर्जी द्वारा 5400 करोड़ की लागत से किया जाएगा। 1200 मेगावॉट क्षमता वाले इस प्लांट के लिए 100 एकड़ जमीन की जरूरत है। इसमें से करीब 700 एकड़ जमीन सरकारी है। करीब 75 लोगों की 300 एकड़ जमीन ली जा चुकी है। इसका निर्माण 2014 तक पूरा किया जाना है। इनके लिए विदेशों से कोयला मंगाने की तैयारी की जा रही है।
थर्मल कोल पावर प्लांट से निकलने वाली राख आसपास की हजारों एकड़ जमीन की उत्पादन क्षमता को नष्ट कर देगी। अब तक कई अध्ययनों में इस बात का खुलासा हो चुका है। सारणी स्थित सतपुड़ा पावर प्लांट से निकलने वाली राख से हजारों पेड़ नष्ट और तवा का पानी प्रदूषित हो गया है। अगर यही स्थिति रही तो वह दिन दूर नहीं जब नर्मदा नदी भारत की सबसे अभिशप्त नदी बनकर रह जाएगी।

मानव तस्करी का गढ़ बना मध्य प्रदेश blog s3e


देश में अफीम की खेती के लिए किख्यात मध्य प्रदेश के मंदसौर जिले में उजागर हुए मानव तस्करी के ताजे मामले से साफ हो गया है कि पूरे प्रदेश में यह धंधा तेजी के साथ पैर पसार चुका है। राज्य के लगभग आधे जिलों में मानव तस्करी में लिप्त लोगों ने अपना जाल फैला लिया है। लेकिन सबसे आश्चर्र्यजनक बात यह है कि जिस्मफरोशी के अड्डों पर खरीदकर लाई गई मासूम बच्चियों को समय से पूर्व जवान बनाने के लिए हारमोन के इंजेक्शन दिए जाते थे ताकि इन मासूम बच्चियों को जल्द से जल्द देहव्यापार के धंधे में उतारा जा सके। पुलिस जांच में सामने आया कि जिस्मफरोशी करने वाली ज्यादातर महिलाओं के बच्चे हैं ही नहीं। पुलिस द्वारा गिनती करने पर इन डेरों में 842 लड़किया पाई गई। अब पुलिस इनका डीएनए कराकर पता करेगी कि आखिर ये बच्चिया इनकी हैं या तस्करी के जरिये लाई गई हैं।
मानव तस्करों ने आधे मध्यप्रदेश को अपनी गिरफ्त में ले लिया है। मानव तस्करी पर पुलिस की उदासीनता के चलते गोरखधंधे में लिप्त लोगों ने 50 में से 24 जिलों में नेटवर्क जमा लिया। जिलों से गायब कई युवक-युवतियों का अर्से से पता नहीं चल पाया। पुलिस भी मानने लगी है कि ये मानव तस्करी का शिकार हो गए। पुलिस ने दो महीने में मानव तस्करी पर होमवर्क किया तो चौंकाने वाली जानकारियां पाकर आंखें खुल गईं। पुलिस मुख्यालय ने मानव तस्करी को लेकर जनवरी में सभी जिलों के पुलिस अधीक्षकों को एक परिपत्र भेजा था। इसमें महिलाओं व बालक-बालिकाओं के खरीद-फरोख्त के पिछले पांच साल में दर्ज प्रकरणों, अपराध के पीछे किसी संगठित गिरोह के सक्रिय होने और खरीद-फरोख्त की रोकथाम के प्रयास का ब्यौरा मांगा।
मंदसौर और नीमच जिलों में मौजूद बांछड़ा समुदाय खुले आम वेश्यावृत्ति करता है, जहां से मानव तस्करी के मामले उजागर होते हैं। पुलिस की जानकारी में सब कुछ होने के बाव'ूद इस ओर ध्यान नहीं दिया 'ाना आश्चर्य का विजय है। पुलिस ने दो महीने में मानव तस्करी पर होमवर्क किया तो चौंकाने वाली जानकारिया पाकर आखें खुल गईं। पुलिस मुख्यालय ने मानव तस्करी को लेकर जनवरी में सभी जिलों के पुलिस अधीक्षकों को एक परिपत्र भेजा था। परिपत्र में बालक-बालिकाओं के खरीद-फरोख्त के पिछले पाच साल में दर्ज प्रकरणों, अपराध के पीछे किसी संगठित गिरोह के सक्त्रिय होने और खरीद-फरोख्त की रोकथाम के प्रयास का ब्योरा मांगा। पुलिस अधीक्षकों की ओर से भेजी जानकारी में पता चला कि प्रदेश में पाच सालों के दौरान 30 से 35 युवक-युवतिया मानव तस्करी का शिकार हुई। राजय में मानव तस्करों की गतिविधियों का पता चलने के बाद पुलिस इन क्षेत्रों पर निगरानी के लिए विशेजव्यवस्था करने पर मजबूर हुई है। पुलिस मुख्यालय ने आईजी की निगरानी में विशेजदल बनाने का फैसला किया। पहले चरण में आठ जिले तथा इसके बाद अगले दो साल में आठ-आठ जिलों में ऐसे दल बनेंगे। जिनमें जबलपुर, कटनी, सतना, मंदसौर, नीमच सीधी, नरसिंहपुर, मंडला, डिंडोरी, झाबुआ, मुरैना, बालाघाट, अनूपपुर, उमरिया शामिल हैं।
पुलिस अधीक्षक,मंदसौर जी के पाठक बताते हैं कि मानव तस्करी रोकने के लिए बने प्रकोष्ठ के बाद जब बाछड़ा जाति के डेरों का गुप्त सर्वेक्षण कराया तो उनके सामने चौंकाने वाले तथ्य आए। इस सर्वेक्षण के दौरान पता चला कि महिला गर्भवती हुई ही नहीं और उसके घर में कुछ माह की बेटी है। इसी आधार पर दबिश दी गई तो लडकियां मिलीं जिनकी खरीद फरोख्त हुई थी। पुलिस पड़ताल में सामने आया कि गरीबी और अशिक्षा का फायदा मानव तस्कर उठा रहे हैं। वे आदिवासियों के परिवारों को रोजगार दिलाने के बहाने बहला-फुसलाकर ले जाते हैं और अनैतिक कार्य में ढकेल देते हैं। पिछले 3 साल में इन जिस्मफरोशी के अड्डों पर 100 से जयादा लड़कियों को बेचा गया है। इन लड़कियों का अपहरण कर इन्हें इन डेरों पर बेचा गया था। इनमें से जयादातर लड़किया गरीब परिवारों से हैं, जबकि कुछ लड़कियों को घरवालों ने ही बेच दिया है। इंदौर, खरगौन, खंडवा, बडवानी, झाबुआ के अलावा राजस्थान के चित्तौड़, निम्बाहेड़ा इलाके से भी कई लड़कियों को लाकर यहा बेचा गया है। अधिकतर लड़कियों को यहा चित्तौड, निम्बाहेड़ा के आसपास से लाया गया है। बाछड़ा डेरों में कम उम्र की लड़कियों को खरीदने के बाद बड़े ही एहतियात से रखा जाता है। लड़की को खरीदने के बाद 5 साल तक उसे कमरे से बाहर नहीं जाने दिया जाता। ताकि कोई उसे पहचान न सके। मल्हारगढ पुलिस और एंटी ह्यूमन ट्रेफेकिंग द्वारा लड़कियों को खरीदे जाने की जानकारी जुटाई जा रही है। माना जा रहा है कि पुलिस इस मसले को लेकर एक बड़ा अभियान चलाने की तैयारी कर रही है, जिससे पिछले सालों में खरीद-फरोख्त की गई लड़कियों को बरामद कर उनके घरवालों को सौंपा जा सके। मंदसौर के पुलिस अधीक्षक जीके पाठक के मुताबिक जिन सात लडकियों को बाछडा जाति के डेरे (बस्ती) से बरामद किया गया है, उनमें से सिर्फ दो लडकियां ही कुछ बताने की स्थिति में है, बाकी इतनी छोटी हैं कि वे कुछ बोल ही नहीं पाती है। डेरे से बरामद की गई लडकियों में से अधिकांश इंदौर व आसपास ही हैं। बताया गया है कि इस काम में एक पूरा गिरोह काम करता था, जिसमें कुछ लोगों पर अपहरण तो कुछ पर ग्राहक तलाशने की जिम्मेदारी होती थी। इन लड़कियों का सौदा कुछ हजार रुपये में ही हुआ है।
मंदसौर जिले की मल्हारगढ पुलिस द्वारा बाछडा समाजके जिस्मफरोशी के डेरों में की गई कार्यवाही के बाद अब तक 18 मासूम लड़किया बरामद की जा चुकी हैं। पुलिस द्वारा 3 जगह छापा मार कर इन लड़कियों को बरामद किया गया। जिसमें से 5 लड़किया तो दुधमुंही हैं। इन सभी लड़कियों की उम्र नौ माह से 9 साल तक हैं। मल्हारगढ़ पुलिस के लगातार चल रहे इस अभियान में कई सनसनीखेजखुलासे हुए हैं। आठ साल की उम्र की लड़कियों को जल्द जवान बनाने के लिए मोर का मास और स्टेरॉईड्स दिया जाता था। जिससे लड़किया जल्द जवान होकर जिस्मफरोशी के बाजार में ढकेली जा सकें। इनके सेवन से कम उम्र की लड़कियों का शरीर बड़ा दिखने लगता है । पुलिस जाच में ऐसी कई दवाईयों के नाम आए हैं जिनके इंजेक्शन इस इलाके में धडग़े से लगाए जा रहे हैं। इन लड़कियों को खाने पीने की चीजों में नशे की गोलियां मिलाकर दी गई थीं और बेहोश होने के बाद उन्हे अगवाकर जिस्मफरोशी के डेरों पर बेच दिया गया था। इस मामले में पुलिस ने 24 लोगों को गिरफ्तार कर लिया है। डेरों पर अब भी कई मासूम लड़किया है जिनके बारे में जाच की जा रही है कि ये लड़किया इन्हीं डेरो वालों की है या खरीदी गई। इसके लिए पुलिस डीएनए जाच कराने की तैयारी कर रही है।
मल्हारगढ़ के सुठोद डेरों में जिस्मफरोशी का अड्डा चलाने वाली सीमा ने बताया कि उनके समाजमें लड़कियों को जल्द जवान करने के लिए मोर का मास कई सालों से खिलाया जाता रहा है। अब बाजारों में इस तरह की कई दवाओं के आ जाने से मोर के मास के साथ दवा भी खिलाई जाती है। जिससे लड़किया वक्त से पहले जवान होकर अपने पुश्तैनी धंधे में हाथ बटाती हैं।
गौरतलब है कि इन डेरों पर जिन लड़कियों को चुराकर बेचा गया उसमें तीन कडिय़ों वाला एक रैकेट काम करता है। पहला गिरोह लड़कियों पर नजर रखकर उन्हें नशा देकर चुराता है। दूसरी कड़ी के बिचौलिये इन्हें बाछडा जाति के उन लोगों से मिलाकर सौदा कराते हैं जो इन्हे खरीदते हैं। और तीसरी कड़ी में खुद बाछड़ा जाति के वो लोग होते है जो इन्हे खरीदकर परवरिश करते हैं, और बड़ा होने पर उन्हे जिस्मफरोशी के धंधे में उतार देते हैं।
बाछड़ा जाति की औरतें पहले अपने ग्राहकों से पैदा हुई लड़कियों को पाल पोस कर उनसे धंधा कराती थी। मगर बजचे होने के बाद जिस्मफरोशी के बाजार में इनकी कीमत कम होने की वजह से पिछले 10 सालों में तस्करी कर लाई गई बजिचयों को खरीदने का गोरखधंधा शुरु हो गया। आकड़ों की माने तो इन डेरों पर 842 लड़किया है। पुलिस को शक है कि जयादातर लड़किया इसी तरह खरीद कर लाई गई हैं। अब पुलिस इस मामले की पड़ताल में जुट गई है। इसके लिए पुलिस डीएनए टेस्ट की मदद लेने का भी मन बना रही है।
जयपुर-मुंबई हाई वे पर रतलाम, मंदसौर, नीमच से लेकर चित्तौड़ तक सडक किनारे बाछड़ा समाजके डेरे हैं। जहा हर रोजजिस्मफरोशी की मंडी सजती है और जहा इन लड़कियों की कीमत होती है महज50 से लेकर 200 रुपये तक। यहा परंपरा के नाम पर यह गोरखधंधा सदियों से चला आ रहा है। पूरे मामले का खुलासा होने के बाद पुलिस हर दिन जिस्मफरोशी के अड्डों पर छापामार कार्रवाई कर चुरा कर खरीदी गई बजिचयों को आजाद करा रही है। डेरों से बरामद लड़कियों को बरसों से तलाश रहे उनके मा-बाप को सौंपा जा रहा है। 18 लड़कियों में से नौ लड़कियों को तो उनके माबाप पहचान कर ले जा चुके हैं। मगर नौ लड़किया ऐसीं हैं जिनके घरवाले अब तक उन्हें लेने नहीं आए हैं। ये सभी नौ लड़किया आठ साल से कम उम्र की हैं, जिसमें से तीन लड़कियों को तो अपने नाम तक नहीं पता। मामले की जाच कर रहे मल्हारगढ़ थाने के थाना प्रभारी अनिरुद्ध वाडिया ने बताया कि अपहरण कर लाई गई सभी लड़किया बेहद गरीब परिवारों से हैं। जहा-जहा से लड़कियों को लाया गया था उन-उन इलाकों के थाने में दर्ज गुमशुदगी की रिपोर्ट तलाश ली गई है। लेकिन इन लड़कियों की वहा गुमशुदगी दर्ज नहीं हुई है। इससे ये लगता है कि इनके माबाप ने या तो इनकी गुमशुदगी दर्ज नहीं करवाई है या फिर इनके मा बाप बाहर से इंदौर आए होंगे। पुलिस लगातार इनके घरवालों को ढूंढने की कोशिश कर रही है। वाडिया ने बताया कि बाछड़ा समाजके डेरों में रह रही 842 लड़कियों की सूची बनाई गई है। पुलिस यह पता करने में जुटी हैं कि ये लड़किया वाकई इनकी हैं या चुराकर लाई गई हैं। पुलिस डीएनए जाच द्वारा इस बात का पता लगाएगी।
जिस्मफरोशी के अड्डों पर नाबालिग मासूम लड़कियों का अपहरण कर बेचे जाने के मामले में मंदसौर पुलिस को हर दिन नए चौंकाने वाले तथ्य मिल रहे हैं। जिस जमीन पर बाछड़ा समाजके डेरे बने हैं, ये जमीनें सरकार ने पुनर्वास के नाम पर इन्हें दी हैं। पुलिस जाच में सामने आया है कि सैकड़ों लड़कियों के जन्म प्रमाणपत्र भी नहीं बने हैं, जिससे मानव तस्करी की आशका और गहरी हो गई है।
मंदसौर की मल्हारगढ़ पुलिस द्वारा मानव तस्करी के खुलासे के बाद बाछड़ा समाजके जिस्मफरोशी के अड्डों पर पुलिस की लगातार दबिश और छानबीन चल रही है। जाच में खास बात यह सामने आई है कि जिस जमीन पर बाछड़ों के जिस्मफरोशी के अड्डे बने हुए हैं, ये सरकारी जमीन थी जो पुनर्वास के लिए बाछड़ा समाजको पिछले 18 सालों में दी गई थी। 1993 से लेकर अब तक कई बार यहा की वैश्याओं को मुख्यधारा से जोडऩे के लिए आधा बीघा से लेकर 5 बीघा तक के पट्टे दिए गए। मगर जब-जब बाछड़ा समाजके लिए पुनर्वास योजना चलाई गई, उसके बाद से इनके धंधे में इजाफा हुआ है। पुनर्वास के लिए दिए गए पट्टों पर पक्के मकान बनाकर उसे एक नया अड्डा बना दिया गया। पिछले 18 सालों में रतलाम, नीमच, मंदसौर में सरकार द्वारा पुनर्वास के लिए दी गई लगभग 200 एकड जमीन पर नए डेरे बना दिए गए। अकेले मल्हारगढ के मुरली डेरे में 40 नये अड्डे पिछले 18 साल में बने हैं। मल्हारगढ पुलिस ने इस मामले से प्रशासन को अवगत कराया है।
मल्हारगढ पुलिस को बाछडा डेरों में जाच के दौरान 286 ऐसी बजिचयों की जानकारी हाथ लगी, जिनके जन्म के प्रमाण पत्र उनकी कथित मा के पास नहीं मिले। पुलिस को प्रारंभिक पूछताछ में जन्म प्रमाण पत्र न बनवाने की कोई उचित वजह ये औरतें नहीं बता पाईं। इससे पुलिस की शका और मजबूत हो गई है। इन डेरों में मिली 842 बजिचयों की डीएनए जाच के लिए मल्हारगढ़ पुलिस ने प्रशासन को पत्र लिखा है।

टोल को लेकर टालम 'टोलÓ


- स्थान चयन बना चुनौती
कहीं कंपनी का परहेज, कहीं क्षेत्रवासियों का ऐतराज तो कहीं कोर्ट की कड़ी फटकार
इंदौर, सिटी रिपोर्टर ।
बीओटी सड़क बनाकर टोल वसूली ठेकेदारों के लिए जहां कमाई का बढ़ा जरिया बन चुका है वहीं इंदौर-खलघाट फोरलेन पर दूसरी टोल प्लाजा के लिए स्थल चयन ने नेशनल हाई-वे अथॉरिटी ऑफ इंडिया (एनएचएआई) की नींद उड़ा रखी है। "्रामीणों और ट्रक ऑपरेटरों के विवादों के बीच उलझा एनएचएआई सड़क बनने के सालभर बाद भी दूसरी टोल प्लाजा के लिए स्थान तय नहीं कर पाया। हालात यह है कि टोल प्लाजा के लिए एनएच जिस भी "ांव का नाम आ"े बढ़ाता है वहीं के रहवासी मुखालफत शुरू कर देते हैं।
    इंदौर-खलघाट रोड पर सालभर से एक टोल प्लाजा से एकमुश्त वसूली करने वाले एनएच ने हाईकोर्ट की कड़ी हिदायत के बाद नए सिरे से दूसरी टोल प्लाजा के लिए जमीन तलाशना शुरू कर दी है। इसके लिए दो "ांव चुने भी "ए। सोनवाय और पि"डम्बर। टोल प्लाजा से पहले महू की ओर निकले रास्ते (तकनीकी भाषा में इसे ट्रेफिक लीकेज कहते हैं) ने सोनवाय की संभावनाएं कम कर दी। फिर विकल्प के रूप में बचा पि"डम्बर। यहां एनएच पहुंचता इससे पहले ही एकजूट हुए "्रामीण-किसान संघ ने टोल के विरोध में मैदान संभाल लिया। उनका कहना है कि रोजाना महू से इंदौर आने वाले हजारों रहवासियों, कृषकों और व्यापारियों की जेब पर मात्र एक किमी के कारण लूट का षड्यंत्र है। टोल का विरोध नहीं है, लेकिन टोल प्लाजा अधिकृत की "ई जमीन पर ही बने। टोल प्लाजा के लिए जमीन महाराणा प्रताप ओवरब्रिज के नजदीक "्राम सोनवाय में अधि"ृहित की "ई है। ऐसे में सवाल यह उठता है कि "्रामीणों के विरोध के बीच आखिर दूसरी टोल प्लाजा कब तक, कैसे और कहां बने"ी?
    जवाब में एनएच के अधिकारी कहते हैं हाई कोर्ट के निर्देशानुसार हमें जल्द से जल्द दूसरी टोल प्लाजा बनाकर देना है। रहा सवाल लो"ों के विरोध का तो करोड़ों रुपया ल"ाकर सड़क बनाने वाली कोई भी कंपनी नहीं चाहे"ी कि टोल ऐसी ज"ह हो जहां ट्रेफिक लीकेज का फायदा उठाकर लो" बच निकले और वह हाथ पर हाथ रखे "ाडिय़ों का रास्ता देखती रहे। वैसे भी एनएचएआई और कंपनी के बीच जो अनुबंध हुआ है उसमें स्पष्ट लिखा है कि यदि कंपनी की रुचि सोनवाय में नहीं है तो वह पि"डम्बर में टोल प्लाजा बना सकता है।
ये हो सकता है बीच का रास्ता
--- चूंकि जमीन अधि"्रहित की जा चुकी है। इसीलिए टोल सोनवाय में बने।
--- टोल प्लाजा सोनवाय में ल"े और महू की ओर जाने वाले रास्ते पर बाहरी ट्रकों का प्रवेश प्रतिबंधित हो जाए।
--- यदि पि"डम्बर में टोल प्लाजा बने तो स्थानीय (आसपास के "्रामीणों) लो"ों की आवाजाही वसूलीमुक्त रहे। जैसी एमआर-10 ब्रिज बनाने वाली कंपनी ने सुखलिया "्राम-खातीपुरा और कुम्हेड़ी के किसानों को सुविधा दे रखी है।
ताई बोली : सोनवाय में ल"े टोल
रविवार को "्रामीणों द्वारा किए "ए विरोध का समर्थन सोमवार को सांसद सुमित्रा महाजन ने भी किया। महाजन ने कलेक्टर राघवेंद्रसिंह से हुई बातचीत में कहा जब जमीन अधि"्रहित की जा चुकी है तो सोनवाय में टोल प्लाजा बनाएं, पि"डम्बर में नहीं। उन्होंने यह भी स्पष्ट कर दिया कि महू-इंदौर के बीच बड़ी तादाद में लो" आते-जाते हैं। ऐसे में पि"डम्बर में टोल ल"ाकर उनसे वसूली जायज नहीं।

टोल प्लाजा : स्थान ही तय नहीं कर पाया जिला प्रशासन


10 जनवरी को हाईकोर्ट में एनएचएआई को देना है हलफनामा
इंदौर, सिटी रिपोर्टर ।
इंदौर-खलघाट रोड के टोल को लेकर 10 जनवरी को नेशनल हाई-वे अथॉरिटी ऑफ इंडिया (एनएचएआई) को हाईकोर्ट में हलफनामा देना है लेकिन जिला प्रशासन अब तक टोल प्लाजा के लिए ज"ह ही तय नहीं कर पाया। "ौरतलब है कि पूर्व निर्धारित स्थान को लेकर जारी जनविरोध को देखते हुए एनएचएआई ने जिला प्रशासन से स्थान तय करने की मां" की थी। ताकि विवाद न हो।
    इंदौर-खलघाट रोड की दूसरी टोल प्लाजा के स्थान चयन ने एनएचएआई के साथ जिला प्रशासन की चुनौतियां भी बढ़ा दी है। खलघाट में जारी एकमात्र टोल प्लाजा पर हाईकोर्ट ने आपत्ति ली थी। कोर्ट ने 10 जनवरी तक एनएचएआई को इस बात का हलफनामा दायर करने का वक्त दिया था कि दूसरी टोल प्लाजा का काम उक्त स्थान पर शुरू हो चुका है। सोनवाय-पि"ड़म्बर के बीच कौनसा स्थान अंतिम हो"ा जनविरोध के बीच इसका अंतिम निर्णय हो ही नहीं पा रहा है। ऐसे में एनएचएआई ने जिला प्रशासन को पत्र लिखकर स्थान तय करने की मां" की थी। हलफनामा दायर करने में सिर्फ सप्ताहभर बाकी है लेकिन जिला प्रशासन स्थान तय नहीं कर पाया।
..तो हो"ी मुश्किल
एनएचएआई के अधिकारियों की मानें तो जिला प्रशासन यदि स्थान तय नहीं करता है तो पूर्व निर्धारित कार्यक्रम और कंपनी के साथ हुए अनुबंध के आधार पर पि"डम्बर में ही टोल प्लाजा बनाएं"े।
उधर, पि"डम्बर में पि"डम्बरवासी और महूवासी टोल प्लाजा बनाने का विरोध कर रहे हैं। वे कहते हैं जमीन सोनवाय में अधि"्रहित हुई तो प्लाजा वहीं बनें।
इधर, सड़क बनाने वाली कंपनी कहती है ट्रेफिक लीकेज के कारण सोनवाय उपयुक्त स्थान नहीं।

लूट की मिली-जुली छूट


-- 140 करोड़ का सुपरकॉरिडो-एमआर-10 रोड बनाने वाले प्राधिकरण के पास नहीं थे ब्रिज के 14 करोड़?
-- बाण"ं"ा ब्रिज में देरी, कारण या एमआर-10 टोल को फायदा पहुंचाने का बहाना
इंदौर, विनोद शर्मा ।

स्थानीय निकायों द्वारा ल"ाए जाने वाले चूं"ी कर को खत्म करके केंद्र सरकार ने शहर प्रवेश की जो आजादी दी थी उसे  एमआर-10 पर बीओटी ब्रिज बनाकर इंदौर विकास प्राधिकरण ने छीन लिया। लो" शिकवा-शिकायतों में व्यस्त थे। प्राधिकरण के पदाधिकारी टोल वसूली की हिमायम में। एक सिरे में 90 करोड़ का सुपर कॉरिडोर और दूसरे सिरे में बायपास तक 50 करोड़ का एमआर-10 रोड बनाने वाले प्राधिकरण के खजाने में क्या ब्रिज के लिए 14 करोड़ रुपए नहीं थे? इस मुद्दे को समझने में न शहर के जानकारों ने रुचि दिखाई और न ही समझाने में प्राधिकरण के पदाधिकारियों ने। प्राधिकरण के प्रश्रय पर ठेकेदार मनमानी वसूली करता रहा और लो" खामौशी से पैसा देकर अपनी जरूरत निकालते रहे।
    पूल के पार बेल"ाम बढ़ती कॉलोनियों को देख न"र नि"म 2007-08 से कुम्हेड़ी और भौरासला को नि"मसीमा में शामिल किए जाने की मां" कर रहा है। वहीं 25 मई 2007 को जिस दिन ब्रिज का लोकार्पण हुआ था उसी दिन पार्षद हरीशंकर पटेल के प्रयासोंं से पूल के पार सड़क का शिलान्यास करके क्षेत्र को नि"म की जद में बता चुके हैं। खैर, इन तथ्यात्मक तर्कों से न ठेकेदार को फर्क पड़ता है और न ही उसू लूट की छूट देने वाले प्राधिकरण के पदाधिकारियों को। इंदौर की सूरत संवारने का दावा करने वाले राजनीतिक रसूखदार भी ठेकेदार को संरक्षण दिए बैठे हैं। मिलीजूली कुश्ती का आलम यह है कि ठेकेदार को फायदा पहुंचाने के लिए पहले मनमाने ढं" से खातीपुरा-"ौरीन"र-सुखलिया "्राम रोड पर बेरियर ल"ा दिया। लो"ों ने विरोध ने जैसे-तैसे बैरियर की बाधा हटाई तो जिम्मेदार भी बाण"ं"ा ब्रिज में देरी का फ"ार फसाकर बैठ "ए। उन्हें मालूम है कि ब्रिज में जितना देर से बने"ा उतना ही ठेकेदार और उनका फायदा हो"ा।
    तकनीकी रूप से बात करें तो एमआर-10 के मुकाबले लोक निर्माण विभा" ने जरूरत नकारते हुए बाण"ं"ा ब्रिज की चौड़ाई आधी कर दी। वह भी उस वक्त जब सर्वे-टेंडर से लेकर काम शुरू होने तक लोक निर्माण मंत्री इंदौर के वे वजनदार मंत्री रहे हैं जिन्हें पाथ इंडिया लि. का बड़ा समर्थक कहा जाता है। बीओटी के तहत 2007-08 में इंदौर-उ'जैन रोड को फोरलेन करने की मंजूरी देने वाले मंत्री को शायद उस वक्त रोड के मुकाबले बाण"ं"ा ब्रिज पर वाहनों की संख्या कम नजर आई हो।
ठेका देने के साथ पाथ को जाने-अनजाने सहुलियतों की सौ"ात देने में भी प्राधिकरण पीछे नहीं रहा। फिर मामला टोल बूथ पर बने ऑफिस-ब्रिज से ल"े स्टॉफ रूम के कब्जे से जूड़ा हो। या एरोड्रम रोड तक सुपर कॉरिडोर और बायपास तक एमआर-10 रोड बनाकर बायपास-रिं" रोड-एबी रोड-उ'जैन रोड-देपालपुर रोड को जोडऩे वाली इंदौर की एकमात्र सड़क का। बात यहीं खत्म नहीं हुई एरोड्रम रोड से इस सड़क को धार रोड से जोडऩे की जद्दोजहद भी प्राधिकरण ने शुरू कर दी। बनी बात है कि जब इस मल्टीकनेक्टिविटी रोड के बनते ही ठेकेदार का मुनाफा दो-तीन "ुना तक बढ़ जाए"ा। बावजूद इसके टोल वसूली कब तक? के सवाल पर सड़क से "ुजरने वाले वाहनों की वास्तविक संख्या से अनजान प्राधिकरण के पदाधिकारी कहते हैं जो हो रहा है अनुबंध के हिसाब से हो रहा है।

एमआर-10:- 15 करोड़ खर्च, वसूली सौ करोड़ से 'यादा


-- प्राधिकरण ने दिया लूट का लाइसेंस
इंदौर, विनोद शर्मा  ।
बीओटी के नाम पर ठेकेदारों को मुनाफा पहुंचाने की दौड़ में इंदौर विकास प्राधिकरण ने मप्र के पीडब्ल्यूडी से लेकर दि"ी के एनएचएआई तक को भी पीछे छोड़ दिया। स्कीमों के नाम पर "ैरआबादी इलाकों में पानी की तरह पैसा बहाने वाले प्राधिकरण के पदाधिकारियों ने सोची-समझी रणनीति के तहत बीओटी से एमआर-10 ब्रिज बनवाया। बाद में ठेकेदार को ला"त से पांच "ुना 'यादा राशि वसूलने का लाइसेंस दे डाला। प्राधिकरण की इस मेहरबानी का खामियाजा इंदौरवासियों को एक-दो नहीं बल्कि 17 साल तक चुकाना हो"ा।

    आंकड़ों के लिहाज से बात करें तो 800 मीटर लंबे इस ब्रिज की ला"त 14.26 करोड़ रु. आंकी "ई थी। 10 जुलाई 2005 को प्राधिकरण ने प्रकाश एस्फाल्टिं" एंड टोल हाईवे (पाथ) इंडिया लि. को वर्कऑर्डर जारी किया। इसमें निर्माण की समयसीमा 455 दिन (15 महीने) तय हुई जबकि टोल वसूलने की 6,101 दिन यानी 17 साल। इतनी लंबी समयसीमा में आखिर कंपनी ला"त से कितना रूपया 'यादा वसूले"ी? इसकी चिंता किसी ने नहीं की। सब राजनीतिक रं"दारों की सं"त में ठेकेदार के कंधे पर हाथ रखकर शहरवासियों को लूटने का तमाशा देखते रहे। लोकर्पण के दूसरे दिन 26 मई 2007 से कंपनी भी सहानुभूति को साइड में रखकर वसूली में जूट "ई।
    वसूली को लेकर प्राधिकरण और कंपनी जो भी आंकड़े बताए लेकिन ये आंकड़े हकीकत से कोसो दूर हैं। वाहनवार 24 घंटे की वसूली निकाली जाए तो आंकड़ा 10 लाख रुपए से 'यादा ही आए"ा। यानी तीन करोड़ रुपए महीना और 36 करोड़ रुपए साल जबकि ब्रिज पर खर्च हुए थे बमुश्किल 15 करोड़ रुपए। यानी स्थापना खर्च को छोड़ सालभर में ही ला"त से दो"ुना 'यादा निकाल रही है कंपनी। कंपनी द्वारा दिए आंकड़ों की भी मानें तो कंपनी 5.40 करोड़ रुपए साल वसूल रही है। इसी औसत से 17 साल में यह आंकड़ा 75.60 करोड़ के पार जाता है। उधर, उ'जैन रोड को एक तरफ एरोड्रम से जोडऩे वाले सुपर कॉरिडोर और दूसरी तरफ बायपास से जोडऩे वाली एमआर-10 के आसपास बढ़ रही बसाहट के कारण ब्रिज से "ुजरने वाले वाहनों की संख्या दिनदूनी-रात चौ"ुनी बढ़ोत्तरी होना अभी बाकी है। 17 में से अभी तीन साल निकले हैं। 14 साल अभी बाकी है। यानी 14.50 करोड़ के ब्रिज के लिए सौ करोड़ से 'यादा की वसूली करे"ी कंपनी।
बाण"ं"ा ब्रिज : टेंशन उतनी की उतनी
उधर, निर्माणाधीन बाण"ं"ा ब्रिज की डिजाइन को लेकर तकनीकी जानकार पहले ही प्रश्न'िाह्न ल"ा चुके हैं। इंजीनियर अतुल सेठ की मानें तो 2025 के यातायात की कल्पना को लेकर एमआर-10 को चार लेन बनाया "या वहीं एमआर-10 के मुकाबले पांच "ुना 'यादा मौजूदा ट्रेफिक की अनदेखी करके लोक निर्माण विभा" ने दो-लेन ब्रिज बनने के बाद भी एमआर-10 से "ुजरने की संभावनाओं को जिंदा रखा है।
"लती आरटीओ की, खामियाजा जनता का
एमआर-10 ब्रिज से होते हुए उ'जैन रोड पर कितने वाहन "ुजरते हैं इस संबंध में परिवहन कार्यालय से पूछा तो जवाब मिला आंकड़े टोल वाले ही दे सकते हैं। हमारा कोई बेरियर नहीं है इसीलिए हमें जानकारी नहीं है। परिवहन विभा" की इसी कमी का फायदा टोल संचालक उठाते हैं।
ये सुविधाएं भी..
--- शिप्रा टोल टैक्स पर एनएचएआई ने वसूली पांच वसूली बूथ और साइड में 1500 वर्"फीट का ऑफिस बनाने की मंजूरी दी थी जिसमें पुलिस चौकी भी थी। इधर, पाथ ने बूथ बनाकर उसके ऊपर 4,500 वर्"फीट से 'यादा का निर्माण अल" कर दिया जिसमें कंपनी का ऑफिस चल रहा है। इतने बड़े ऑफिस का मासिक किराया ही इंदौर में एक लाख रु. से 'यादा है और 17 साल का 2.04 करोड़ रुपए।
--- ब्रिज की ब"ल में कंपनी ने 4,000 वर्"फीट में स्टॉफ रूम बना रखे हैं वहीं तकरीबन दो एकड़ जमीन बतौर "ौदाम इस्तेमाल की जा रही है। इसका किराया भी कमोबेश 2.04 करोड़ से ऊपर ही हो"ा।
--- कंपनी ने टोल प्लाजा के दोनों ओर 1,000 वर्"फीट के दो होर्डिं" ल"ा रखे हैं। बहरहाल, एड को आमंत्रण दे रहे इन होर्डिं"ों का सालाना किराया भी कंपनी एक लाख से 'यादा वसूलती है।
--- ब्रिज के दोनों ओर ल"े बिजली के 64 खंभों पर भी बोर्ड ल"ाकर कंपनी विज्ञापन के अधिकार बेच रही है।
-- प्राधिकरण की अनूमति से कंपनी ने "ौरीन"र से सुखलिया "्राम होते हुए बाण"ं"ा थाने को जोडऩे वाली सड़क पर भी बेरियर ठोक रखा है जिसका काफी विरोध भी हुआ।
अभी तो इनसे भी बढ़े"ा लोड
--- प्राधिकरण ने 90 करोड़ रुपए में 9 किलोमीटर लंबा सुपर कॉरिडोर बना दिया जो एमआर-10 को एरोड्रम रोड से जोड़ता है। यहां आ"ामी दस वर्षों के लिए बड़ी संख्या में होटलें, मॉल, स्पोर्ट्स कॉम्पलेक्स और मेडिकल हब बनना है।
-- सुपर कॉरिडेार की तैयारियों के साथ करोलबा", कालिंदी "ोल्ड, प्रीमियम पार्क जैसी दर्जनभर से 'यादा कॉलोनियां काट रही है उ'जैन रोड पर। बन रहा है एचबीएन का मॉल भी।
-- बायपास को रिं" रोड, एबी रोड और उ'जैन रोड से जोडऩे वाली अभी तक एक ही सड़क। इसीलिए ट्रकों की लं"ी रहती है लाइन। 
ब्रिज से "ुजरने वाले वाहन/घंटा
वाहन         औसत/घंटा        24 घंटों में
कार-जीप         300        7200
खाली ट्रक        300        7200
बस         180        4320
भरे ट्रक        300        7200
टेम्पो-मेटाडोर    350        8400
मल्टी एक्सल ट्रक    120        2880
किससे कितना टोल
वाहन         टोल (रुपए)      वसूली 24 घंटों में
कार-जीप         18     1.29 लाख (7200)
टेम्पो-मेटाडोर     40     3.36 लाख (8400)
खाली ट्रक-बस    60     6.91 लाख (11,520)
ट्रक         75     5.40 लाख (7200)
मल्टी एक्सल ट्रक    90     2.59 लाख (2880)
(ये आंकड़े औसत वाहनों की संख्या और टोल शुल्क के आधार पर जुटाए "ए हैं।)
15 लाख रोज से 'यादा की है वसूली
कंपनी और सरकार कभी स"ो आंकड़े पेश नहीं करती। बात एमआर-10 की करें तो रोज यहां 15 लाख से 'यादा की टोल वसूली होती है। सरकारी आंकड़े कहते हैं वाहनों की संख्या सालाना 7 प्रतिशत बढ़ रही है फिर टोल क्यों नहीं बढ़ता। वास्तविक वसूली का आंकलन करने के लिए निजी संस्थाओं से सर्वे कराया जाए।
राजेंद्र त्रेहान, अध्यक्ष
इंदौर ट्रक ऑपरेटर एंड ट्रांसपोर्ट ऐसोसिएशन
अनुबंध के आधार पर वसूली
एमआर-10 ब्रिज पर चौबीस घंटे में डेढ़ लाख रुपए की टोल वसूली होती है। इसके बाद जो आंकड़े बताए जाते हैं वे तथ्यात्मक नहीं हैं। प्राधिकरण से जो अनुबंध हुआ है उसी के आधार पर वसूली कर रहे हैं।
पुनीत अ"्रवाल, पाथ इंडिया
अनुबंध में क्या लिखा है जानकारी नहीं है। टर्म एंड कंडिशन देखकर ही कुछ कह सकता हूं।
चंद्रमौली शुक्ला, सीईओ
आईडीए

नि•ल गई लागत, बंद हो टोल


इंदौर-खलघाट रोड •े बाद खंडवा रोड •े टोल ट्रांसपोटर ऐसोसिएशन •े निशाने पर
इंदौर, सिटी रिपोर्टर ।
इंदौर-खलघाट फोरलेन में ए•तरफा हो रही टोल वसूली •े खिलाफ हाई •ोर्ट से जीतने वाले इंदौर ट्रांसपोटर्स ऐसोसिएशन •ी निगाहें अब इंदौर-एदलाबाद रोड पर हो रही मनमानी टोल वसूली पर है। ऐसोसिएशन •े •र्ताधर्ताओं •ी मानें तो टोल वसूली •ी दस्तावेजी जान•ारियां और वाहनों •ी संख्या •े साथ दरों •े हिसाब से वास्तवि• आं•लन •रेंगे। उस•े बाद टोल बंद •रने •े लिए •ोर्ट में याचि•ा दायर •रेंगे।
    इंदौर-खलघाट फोरलेन पर नियमानुसार दो स्थानों पर टोल वसूली होना थी ले•िन पूर्ति ए• ही जगह से हो रही थी। ऐसोसिएशन ने नेशनल हाई-वे अथॉरिटी ऑफ इंडिया (एनएचएआई) •ी इस नीति •े खिलाफ •ोर्ट में दस्त• दी। फैसला पक्ष में हुआ। •ोर्ट ने दोनों क्षोर पर टोल लगाने •े आदेश दिए। जनहित •े पक्ष में हुए फैसले ने ऐसोसिएशन •े हौंसले बुलंद •र दिए। अब ऐसोसिएशन •ी निगाहें दो प्रमुख सडक़ों पर हो रही टोल वसूली पर है। इंदौर-एदलाबाद रोड इनमें से ए• है। ऐसोसिएशन •े अध्यक्ष राजेंद्र त्रेहान ने बताया 203 •िलोमीटर लंबी इस सडक़ •ी लागत 123 •रोड़ रुपए आई थी। इसमें 45 •रोड़ रुपए सर•ार ने दिए। यानी •ंपनी ने मिलाए 78 •रोड़ रुपए। इसमें 50 •रोड़ रुपए तो •ंपनी ने सिर्फ 2005-06, 38 •रोड़ 2006-07, 44 •रोड़ 2007-08 और त•रीबन 50 •रोड़ 2008-09 में नि•ाले। इससे पहले 2002-03 से ले•र 2005-06 •े बीच वसूले गए 70 •रोड़ •ा हिसाब अलग। यानी •ंपनी ने जितना लगाया उससे तीन गुना तो •ंपनी वसूल •र चु•ी है।
    ऐसे में 2017 त• •ंपनी •ो टोल •ी मंजूर दिए रखना सीधे तौर पर सडक़ से गुजरने वाली जनता •े साथ धोखा है। यदि •ंपनी तीन गुना राशि वसूल चु•ी है तो उस•ा टोल •लेक्शन •ा अधि•ार खत्म •र दिया जाना चाहिए। उधर, एबी रोड पर ग्वालियर से गुना •े बीच भी टोल वसूली •ो ले•र जो मनमानियां हो रही उस•े खिलाफ भी •ोर्ट •ा दरवाजा खटखटाएंगे।

हर दिशा में टोल की टेंशन


- शहर से जूडऩे वाली सात सड़कों में से 4 पर हैं 12 टोल
- सफर हुआ महं"ा, भाड़ा बढ़ोत्तरी से रसद की कीमतें भी बढ़ी
कॉमन इंट्रो :-
ट्रांसपोर्टर राजू अ"्रवाल की मानें तो इंदौर से भोपाल के बीच 190 किलोमीटर के लिए ट्रक को 875 और जबकि इंदौर से उ'जैन के बीच 56 किलोमीटर के 300 रुपए देना पड़ते हैं। यानी 4.6 से 5.3 रुपए/किलोमीटर का टैक्स। पर्मिट और रोड टैक्स के बाद टोल और पुलिसकर्मियों की पुर्ति करने में ही पसीना आ जाता है।
इंदौर, विनोद शर्मा ।

सड़क निर्माण में निजी भा"ीदारी के नाम पर ठेकेदारों को टोल वसूली जैसा कमाई का बड़ा जरिया देने वाली सरकार ने इंदौर में आना-जाना महं"ा कर दिया है। फिर भले इंदौर से खंडवा-खलघाट जाओ या भोपाल। हर ज"ह टोल की टेंशन न सिर्फ लो"ों का रास्ता रोक रही है बल्कि उनकी जेब भी हल्की कर रही है। आंकड़ों के लिहाज से बात करें तो आ"ामी दो साल में रद्दड़ नेमावर रोड और निर्माणाधीन देपालपुर रोड को छोड़ बाकी हर रूट पर टोल की रकम चुकाना हो"ी। टोल की टेंशन ने लो"ों को सफर तो महं"ा किया ही ट्रक भाड़े की बढ़ोत्तरी के साथ खाने-पीने की वस्तुओं के भाव भी बढ़ा दिए।
    बजट की कमी और मुसाफिरों की सहुलियत का वास्ता देकर नेशनल हाई-वे अथॉरिटी ऑफ इंडिया (एनएचएआई) और मप्र रोड डेवलपमेंट कॉर्पोरेशन (एमपीआरडीसी) ने इंदौर को दूसरे शहरों से जोडऩे वाली तकरीबन हर रोड ठेकेदारों के हवाले कर दी। इंदौर-भोपाल, इंदौर-खलघाट और इंदौर-खंडवा के साथ इंदौर-उ'जैन रोड पर भी टोल की टेंशन लाद दी "ई। वह भी उस स्थिति में जब इंदौर विकास प्राधिकरण द्वारा बनाए "ए एमआर-10 ब्रिज के लिए लो" पहले ही मनमाना शुल्क अदा कर रहे हैं। इंदौर-देवास सिक्सलेन बनने से पहले मां"लिया में टोल प्लाजा का काम शुरू हो चुका है। साल-दो साल में इंदौर-अहमदाबाद मार्" के आकार लेते ही धार-झाबुआ-रतलाम का सफर भी महं"ा हो जाए"ा। उधर, एनएचएआई ब"ैर टोल के देवास-"्वालियर का काम भी शुरू नहीं करे"ा। यानी उत्तर-दक्षीण, पूरब-पश्चिम जिधर जाओ टोल तो देना ही पड़े"ा।
    उधर, टोल की वकालत कर रहे सरकारी तंत्र की मानें तो बदहाल सड़कों पर हिचकौले खाकर ईंधन जलाने से कहीं "ुना अ'छा है अ'छी सड़क पर चलकर टोल चुकाना। जब सरकारी खजाना खाली था तब सड़कों की सूरत संवारने में बीओटी और पीपीपी आदर्श पद्धति साबित हुए हैं। इससे वाहनों का ईंधन बचा तो सरकार का खजाना भी। वहीं मुसाफिर सरकरी तर्कों से इत्तेफाक नहीं रखते।
ठेके पर ही देना है तो विभा" बंद करो
ट्रेवल्स की "ाडिय़ां चलाने वाले सुधीर शर्मा, आष्टा के आरीफ शेख और भोपाल की सं"ीता श्रोत्रिय कहती हैं "ाड़ी रखने वाली व्यक्ति भारी भरकम रोड टैक्स और परमिट शुल्क भी चुकाए और बाद में टोल पर टैक्स देता रहे। यह अन्याय नहीं तो क्या है? यदि सड़कें ठेकेदार ही बनाकर मनमाना टैक्स वसूलते रहे तो पीडब्ल्यूडी, एमपीआरडीसी और राष्ट्रीय राजमार्" जैसे विभा"ों की जरूरत ही क्या है। इन विभा"ों का सालाना जितना स्थापना बजट है उतने में हर साल कई किलोमीटर लंबी सड़कें बनाई जा सकती हैं। वह भी टोल फ्री।
बीओटी-पीपीपी क्यों?
प्रदेश भर में सड़कों की खराब हालत को सुधारने के लिए रा'य सारकार ने बीओटी की नीति बनाई थी। प्रदेश भर में सड़कों की हालत "ंभीर थी, यह ढूंढना मुश्किल था कि सड़क कहां है, उसके अवशेष ही दिखाई देते थे। सरकार के पास इन्हें बनाने के लिए धन का अभाव था और प्रदेश का विकास करने के लिए सड़कों का विकास अवश्यक था, ऐसे में पीपीपी-बीओटी आधार पर सड़कों के निर्माण की बात सामने आई।
टोल नीति सार्वजनिक करने से बचती है सरकार
इंजीनियर अतूल सेठ का कहना है कि टोल स्थानीय लो"ों पर ला"ू नहीं होता। ऐसे में खंडवा रोड वाला, एमआर-10 और मां"लिया बायपास वाला टोल के लिए 20 किलोमीटर की दूरी में बसा इंदौर स्थानीय है। इसीलिए इंदौरवासियों पर टोल ला"ू नहीं होना चाहिए। दूसरा ठेकेदारों को सड़क की ला"त और उस पर 10 से 12 प्रतिशत ब्याज की वसूली का अधिकार देना चाहिए न की वर्षों बरस का ठेका दे दें। इंजीनियर मुकेश चौधरी कहते हैं टोल नीति तय करे सरकार। जैसे 50 हजार की ला"त वाली "ाड़ी को फाइनेंस करते वक्त ब्याज के पांच-छह हजार रुपए सहित बैंक कुल ला"त 55-56 हजार रुपए बताकर वसूली की समयसीमा तय कर देती है उसी तरह सड़कों की ला"त भी ब्याज सहित शुरूआत में सार्वजनिक की जाना चाहिए।
2.63 रुपए/किलोमीटर का टैक्स
इंदौर से भोपाल के बीच की दूरी 190 किलोमीटर है। इंदौर-भोपाल बस को  जाम"ोद (देवास) पर 86, बेदाखेड़ी (आष्टा) पर 150 और बायपास (सीहोर) पर 68 रुपए देना पड़ते हैं। यानी 1.6 रुपए/किलोमीटर। ट्रकों को बायपास (देवास) सहित 500 रुपए तक चुकाना पड़ते हैं यानी 2.63 रुपए/किलोमीटर। चार पहिया वाहनों को 39 पैसे/किलोमीटर के हिसाब से 75 रुपए देना पड़ते हैं।
इंदौर-इ'छापुर (खंडवा रोड)
203 किमी लंबे इस रोड पर चार टोल नाके 2002-03 से 15 सालों के लिए शुरू हुए। बायपास करते ही मोरोद से टोल की टेंशन शुरू होती है जो शाहपुर तक चलती है। तीन टोल की रसीद दिखाने पर चौथा फ्री है। यहां बस से 430 रुपए ल"ते हैं। यानी 2.01 रुपए/किलोमीटर। यह इंदौर-भोपाल रोड से 50 पैसे/किलोमीटर 'यादा है जबकि भोपाल रोड फोरलेन है और खंडवा रोड टू-लेन है।
इंदौर-उ'जैन
54 किलोमीटर के सफर के लिए एमआर-10 और रेवती रेंज दो ज"ह चार पहिया वाहनों को 20-20 रुपए ल"ते हैं। दोनों टोल के बीच की दूरी बमुश्किल दस किलोमीटर है। ट्रक को दोनों टोल मिलाकर तीन सौ रुपए चुकाना पड़ते हैं यानी 5.35 रुपए/किलोमीटर। 
किस रोड पर कहां-कहां है टोल टैक्स
इंदौर से भोपाल :- बायपास (देवास), जाम"ोद (देवास) बेदाखेड़ी (आष्टा) और खजूरी (सीहोर)
इंदौर से "्वालियर :- बायपास (देवास)
एबी रोड :- खलघाट
खंडवा रोड :- असरावद खुर्द (इंदौर), सनावद (खंडवा) बुरहानपुर और शाहपुरा (बुरहानपुर)
उ"ौन रोड :- भौरासला और एमआर-10
ये तो बंद भी हो चुके हैं
इंदौर-पीथमपुर :- इंडौरामा चौराहा, महू "ांव और राऊ पीथमपुर रोड
(महू-नीमच रोड बनाने के बाद इस रोड पर फिर से टोल टैक्स ल"ाने का प्रस्ताव "या है।)
इंदौर-देवास :- शिप्रा ब्रिज
यहां भी देना पड़े"ा टोल
इंदौर-सेंधवा :- सेंधवा से दस किलोमीटर पहले
इंदौर-देवास :- मां"लिया बायपास
निर्माणाधीन इंदौर-अहमदाबाद :- घाटा बिल्लौद और सरदारपुर
इंदौर-"्वालियर :- मक्सी, राज"ढ़, "ुना और झांसी (संभावित)
(टोल संचालकों की मानें तो टोल की रकम में सालाना 7 से 10 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी की जाना प्रस्तावित है। )

फइंदौर-एदलाबाद रोड ++ रिनुअल बचाकर कंपनी ने ल"ाया करोड़ों का फटका


अनुबंध के अनुसार आठ साल में कमसकम एक बार तो हो जाना था रिनुअल
कंपनी की मनमानी-सरकारी अनदेखी से बि"डऩे ल"ी सड़क की सूरत
इंदौर, सिटी रिपोर्टर ।
डेढ़ सौ करोड़ की रोड बनाकर तीन हजार करोड़ से 'यादा की टोल वसूली का एस्टीमेट बनाकर बैठी अशोका बिल्डकॉन-विवा हाई-वे अनुबंध के आधार पर इंदौर-एदलाबाद रोड का रिनुवल न करके करोड़ों रुपया बचा "ई। एमपीआरडीसी और कंपनी के बीच हुए अनुबंध के आधार पर पांच बरस में रिनुअल होना था, जो आठ साल  बाद भी नहीं हुआ। इसका असर सड़क की सेहत पर नजर भी आने ल"ा है।
    अशोका बिल्डकॉन और विवा हाई-वे प्रा.लि. ने 2002-03 में 203 किलोमीटर लंबा इंदौर-एदलाबाद (खंडवा) रोड बनाया था। एमपीआरडीसी के अफसरों की मिलीभ"त से मनमाना टोल वसूलने वाली इन कंपनियों ने अनुबंध के हिसाब से क्रेन, एम्बुलेंस, ले-बाई, पेयजल और सुविधाघर जैसी सहुलियतें उपलब्ध नहीं कराई। कंपनी की मनमानी और अफसरों की अनदेखी का असर सड़क की सेहत पर पड़ा। इंदौर-खंडवा के बीच कई स्थानों के बीच "ड्ढे उभर आए हैं। वहीं कई ज"ह सड़क के कोने कटे हैं। दुर्घटनाओं की वजह से कुछ पुलियाओं की पाल भी उखड़ी नजर आती है। खंडवा से बुरहानपुर के बीच कहीं-कहीं "ड्ढे नजर आते हैं। वहीं बुरहानपुर से इ'छापुर के बीच "ड्ढों की संख्या 'यादा है।
क्या था अनुबंध
सड़क 2002 में बनी। 2010 खत्म हो चुका है। यानी आठ साल हो "ए। भारी वाहनों के बीच सड़क पर चार-पांच साल में रिनुअल किया जाना चाहिए था जैसा कि 2000-01 में इंदौर-देवास फोरलेन बनाने वाली लोक निर्माण विभा" की राष्ट्रीय राजमार्" शाखा ने 2008-09 के बीच किया।
बचाए 50 करोड़ से 'यादा
तकनीकी लिहाज से बात करें तो दो-लेन सड़क के रिनुअल की ला"त 25 लाख रुपए/किलोमीटर आती है। सड़क की लंबाई 203 किलोमीटर है। यानी ला"त आना चाहिए 50.75 करोड़। ये रकम यदि कंपनी रिनुअल करती तो उसे खर्च करना पड़ती। चूंकि रिनुअल नहीं हुआ यानी कंपनी इतनी राशि बचा "ई।
कंपनी : कर चुके हैं एक बार रिनुअल
कंपनी के कर्ताधर्ताओं की मानें तो वे अनुबंध के आधार पर निर्माण के बाद एक बार रिनुअल कर चुके हैं। रिनुअल पांचवे साल में किया था। इसीलिए रोड आज भी टनटनाट है। रोड एक्सीडेंट के कारण कहीं छोटे-मोटे "ड्ढे हुए भी हैं तो उन्हें दुरुस्त कर दें"े।
रहवासी बोले : झूठी है कंपनी, नहीं हुआ रिनुअल
असरावद खुर्द निवासी विष्णु मालवीय की मानें तो रिनुअल की झूठी कहानी सुनाकर कंपनी अधिकारियों के साथ मिलकर जनता की आंखों में धूल झोख रही है। वास्तव में निर्माण के बाद आज तक रिनुअल हुआ ही नहीं। हां, ये बात भी सही है कि थोड़े-बहुत "ड्ढों को छोड़ दें तो रिनुअल न होने के बाद भी ये सड़क दूसरी सड़कों के मुकाबले बेहतर है। बड़वाह निवासी प्रमोद जैन ने कहा जब इंदौर-देवास फोरलेन का रिनुअल आठ साल में हो सकता है तो आठ साल बाद इंदौर-एदलाबाद रोड का क्यों नहीं। रिनुअल के नाम पर झूठ बोलकर कंपनी इधर, करोड़ों रुपया बचा "ई वहीं उधर, हिसाब में जोड़कर सरकारी लाभ ले ले"ी।




फोरलेन से महं"ी, मप्र की टू-लेन सड़कें



- ठेकेदारों को फायदा पहुंचाने का सरकारी फंडा
-- देवास-भोपाल फोरलेन से 1.29 रु/किलोमीटर महं"ी है इंदौर-एदलाबाद टू-लेन रोड
इंदौर, सिटी रिपोर्टर ।
नेशनल हाई-वे एक्ट 1956 के तहत यदि फोरलेन सड़क पर 100 रुपए टोल वसूला जाता है तो टू-लेन रोड पर टोल वसूली 60 रुपए हो"ी। यानी अंतर 40 फीसदी का। बात मप्र की करें तो यहां स्थिति उलटी है। ठेकेदारों को मुनाफा पहुंचाने का मनसुबा बनाकर बैठी मप्र सरकार फोरलेन के मुकाबले टू-लेन सड़कों पर 'यादा टोल वसूली की छूट दे चुकी है। इसका बड़ा उदाहरण है इंदौर-एदलाबाद टू-लेन रोड जहां ट्रकों से 2.54 रु/किलोमीटर की दर से टोल वसूला जा रहा है जो नवनिर्मित देवास-भोपाल फोरलेन के मुकाबले 1.45 रु/किलोमीटर 'यादा है।
    मप्र रोड डेवलपमेंट कॉर्पोरेशन से प्राप्त आंकड़ों के लिहाज से बात करें तो 203 किलोमीटर लंबे इंदौर-एदलाबाद रोड पर अशोका बिल्डकॉन-विवा हाई-वे संयुक्त रूप से सामान्य ट्रकों से 517 रुपए टोल वसूल रही हैं। यानी हर किलोमीटर का 2.54 रुपया। इसी तरह उ'जैन से आ"र होते हुए झालावाड़ (राजस्थान) तक 134 किलोमीटर लंबा सफर तय करने वाले ट्रकों को 2.57 रु/किलोमीटर की दर से 345 रुपए देना पड़ रहे हैं।
वहीं 148 किलीमीटर लंबे नवनिर्मित देवास-फोरलेन पर चलने के लिए सामान्य ट्रक वालों को चलने के लिए 185 रुपए टोल शुल्क चुकाना पड़ता है। यानी औसत 1.25 रु/किलोमीटर। यदि किलोमीटरवार निकाले "ए इन आंकड़ों के लिहाज से बात करें तो देवास-भोपाल फोरलेन के मुकाबले इंदौर-एदलाबाद रोड पर चलने के लिए 1.29 रु/किलोमीटर 'यादा देना पड़ रहे हैं। यानी फोरलेन के मुकाबले टू-लेन का सफर 'यादा महं"ा है।
किलोमीटरवार होती है वसूली
एमपीआरडीसी के कर्ताधर्ता कहते हैं एनएच फोरलेन और टू-लेन के बीच वसूली का अंतर रखता है लेकिन कॉर्पोरेशन पर ये नियम ला"ू नहीं होते। दोनों सड़कों पर टोल-वसूली का रेट किलोमीटर के आधार पर तय किया जाता है।
जैसी सहुलियत, वैसी हो वसूली
बड़वाह निवासी कमलकिशोर शर्मा ने बताया देवास-भोपाल जैसी रोड बनाकर वैसी वसूली करें हमें कोई दिक्कत नहीं है लेकिन ब"ैर फोरलेन रोड बनाए उसके आधार पर वसूली बर्दाश्त नहीं होती।
बिलावली निवासी घनश्याम वर्मा ने बताया केंद्र की तरह वेतन-भत्ता मां"ने वाले पीडब्ल्यूडी के अधिकारी सड़क निर्माण-टोल वसूली के मामले में रा'य के अल" मापदंड लेकर क्यों बैठ जाते हैं। समझ नहीं आता।
"्रेटर वैशालीन"र निवासी जितेंद्र जा"ीरदार का कहना है कि ये पीडब्ल्यूडी का ठेकेदारों को फायदा पहुंचाने का फंडा है। यदि फोरलेन की दरों पर दो-लेन पर ठेकेदारों को कमाने को मिले"ा तो वे फोरलेन क्यों बनाएं"े।
दोनों सड़कों में अंतर
----टू-लेन सड़कों की चौड़ाई 6 से बमुश्किल 7 मीटर तक होती है जबकि फोरलेन की चौड़ाई 22 से 25 मीटर तक रहती है।
----कुल मिलाकर दो-लेन के मुकाबले दो "ुनी रोड।
----दो-लेन की ला"त फोरलेन के मुकाबले आधी आती है।
----दो-लेन के मुकाबले फोरलेन रोड 'यादा सुरक्षित है।
----फोरलेन में डिवाइडर भी होते हैं लेकिन दो-लेन पर डिवाइडर नहीं बनाए जा सकते।
----पुल-पुलियाओं की ला"त का अंतर भी दो"ुना तक का।


कमाऊ सड़कों पर सहुलियतों का संकट


बीओटी अनुबंधों के बावजूद नहीं दिखती टोलवार क्रेन-एम्बुलेंस
न पीने की पानी की व्यवस्था, न सुविधाघर
इंदौर, विनोद शर्मा।
बीओटी के तहत ला"त से 15 "ुना अधिक वसूली करने वाले ठेकेदार अनुबंधों के हिसाब से मुसाफिरों को सहुलियतें नहीं देते। फिर वह एमआर-10 पर टोल वसूली करने वाली पाथ इंडिया लि. हो या डेढ़ सौ करोड़ के खंडवा रोड के लिए तीन हजार करोड़ की वसूली का एस्टीमेट बनाकर बैठी अशोका बिल्डकॉन-विवा हाई-वे। सालाना करोड़ों की कमाई करने वाले इन ठेकेदारों के पास न दुर्घटना"्रस्त वाहनों को हटाकर सड़क को जाम मुक्त रखने के लिए के्रन खरीदने का पैसा है। न घायलों के उपचार लिए एम्बुलेंस या किसी तरह की प्राथमिक स्वास्थ्य सेवा। मप्र रोड डवलपमेंट कॉर्पोरेशन या इंदौर विकास प्राधिकरण ने अनुबंध में सहुलियतों का जिक्र किए जाने के बाद भी राजनीतिक रं"दारों का वरदहस्त प्राप्त ये ठेकेदार जनता की जरूरतों को नकारते नजर आते हैं।
    बीओटी के तहत सड़क या ब्रिज का ठेका देते वक्त एनएचएआई-एमपीआरडीसी-आईडीए जैसी एजेंसियां कंपनी के साथ अनुबंध करती है। अनुबंध के अनुसार कंपनी को सड़क के साथ सिर्फ टोल वसूली का अधिकार नहीं दिया जाता बल्कि मुसाफिरों के लिए सहुलियत जुटाने की जिम्मेदारी भी दी जाती है। फेहरिस्त में टोल प्लाजावार "्रीनबेल्ट, एम्बुलेंस-के्रन, टोल, पेयजल-सुविधाघर, ट्रक पार्किं" के लिए ले-बाई जैसी सहुलियतें शामिल हैं। कानूनन सहुलियतें जुटाने के बाद ही टोल वसूली की जाना चाहिए लेकिन एमआर-10 ब्रिज और खंडवा रोड पर टोल वसूली होते वर्षों हो "ए लेकिन न यहां किसी टोल प्लाजा पर क्रेन नजर आती है। न एम्बुलेंस। अनुबंध में यह भी उल्लैख है कि शर्तों का पालन न किए जाने की दशा में अनुबंध निरस्त भी किया जा सकता है लेकिन आज तक किसी भी कंपनी का अनुबंध निरस्त नहीं हुआ।

इंदौर-एदलाबाद
सहुलियतों से परहेज
165 करोड़ में 203 किलोमीटर लंबा इंदौर-एदलाबाद रोड बनाने वाली अशोका बिल्डकॉन-विवा हाई-वे दस्तावेजों में ही 60 करोड़ रुपए साल की वसूली का आंकड़ा दर्ज करा चुकी है। बावजूद इसके 2002 से टोल वसूली कर रही यह कंपनी अब टोल प्लाजावार पीने के पानी और सुविधाघर तक की व्यवस्था नहीं कर पाई। ट्रांसपोर्ट ऐसोसिएशन द्वारा बनाए "ए  दबाव के बाद 2008-09 में जैसे-तैसे एक-दो क्रेन-एम्बुलेंस की व्यवस्था की थी जो आज भी रोड से "ायब ही नजर आती हैं। इसके साथ कंपनी ने बीस-चालीस किलोमीटर ले-बाई भी नहीं बनाए। नियमित रूप से सड़क पर चलने वाले ट्रक ड्राइवरों और टैक्सी ड्राइवरों की मानें तो कंपनी ने पुल-पुलियाओं की मरम्मत के ब"ैर ही टोल वसूली शुरू कर दी थी। चौखी ढाणी के पास कनाड़ पुलिया और बुरहानपुर के पास एक अन्य पुलिया पर काम चलता नजर आ जाता है।
क्या कहते हैं लो"
ट्रक ड्राइवर विजय परमार ने बताया इंदौर-बुरहानपुर लाइन पर चलते हुए मुझे 12 साल हो चुके हैं। नियमित आता-जाता हूं। आज तक कंपनी की क्रेन-एम्बुलेंस नहीं दिखी। ना"पुर से लौट रहे विजयन"र निवासी राजकुमार राव ने बताया महीने-डेढ़ महीने में एक टूर ल"ता ही है। टोल प्लाजा को छोड़ कोई व्यवस्था नजर नहीं आती। अमरावति-इंदौर बस के ड्राइवर कमल सुरवड़े ने बताया महाराष्ट्र के टोल प्लाजा सहुलियत में मप्र के टोल से आ"े है। वहां पानी-सुविधाघर से लेकर एम्बुलेंस तक की व्यवस्था है।
एमआर-10
बर्बाद हो रही सहुलियतों की सल्तनत
तकरीबन 15 करोड़ का एमआर-10 ब्रिज बनाने वाली पाथ इंडिया भी क्रेन-एम्बुलेंस और पेयजल-सुविधाघर जैसी सहुलियतें जुटाने में नाकाम रही। यहां लापरवाही का आलम यह है कि कंपनी ने पुल बनाते वक्त पर्याप्त प्रकाश व्यवस्था के लिए दोनों ओर 64 स्ट्रीट लाइट के खंबे ल"ाए थे। इसके लिए 30 सेंट्रल लाइट के खंबे। 17 साल के लिए ब्रिज की देखरेख का जिम्मा लेने वाली कंपनी के ऑफिस और दिनभर टोलप्लाजा पर कर्मचारियों की मौजूद"ी के बावजूद 25 प्रतिशत से 'यादा खंबे जर्जर हो चुके हैं। सेंट्रल लाइट के कुछ खंबे तो उखड़ भी चुके।
क्या कहते हैं लो"
पंथ पिपलई निवासी राजेेंद्र सिंह ने बताया टोल पर कोई सहुलियत नहीं है। हां, थोड़ी-बहुत हरियाली जरूर नजर आती है। ट्रक ड्राइवर मदनलाल ठाकुर ने बताया यहीं क्यों मैंने तो कहीं भी टोल की टेंशन छोड़ कोई दूसरी सहुलियत नहीं देखी। एमआर-10 टोल प्लाजा पर तो विशालकाय होर्डिं" टां" दिए। तेज हवा में डर ल"ता है नीचे न "िर जाए।
&&&&
अनुबंध में कुछ नहीं
हमारे ए"्रीमेंट में के्रन-पानी-एम्बुलेंस-सुविधाघर या किसी अन्य सहुलियत का कोई जिक्र ही नहीं। ब्रिज वाले हिस्से की लाइटें भी व्यवस्थित है।
पुनीत अ"्रवाल, पाथ इंडिया
(अशोका बिल्डकॉन-विवा हाई-वे के कर्ताधर्ताओं से संपर्क नहीं हो पाया।)

सड़क निर्माण: ला"त के नाम पर भंडारा

एनएचएआई और एमपीआरडीसी से महं"ी है नि"म की सड़कें, उम्र कम
इंदौर, विनोद शर्मा ।
ला"त के नाम पर मनमाना दाम वसूलने के बाद भी न"र नि"म के अधिकारी और ठेकेदार "ुणवत्ता से समझौता करके घटिया सड़कें बना रहे हैं। आंकड़ों के लिहाज से बात करें तो न"र नि"म एक किलोमीटर लंबी सड़क के रिनुअल पर जितना रुपया खर्च करता है उतने में नेशनल हाई-वे अथॉरिटी ऑफ इंडिया (एनएचएआई) तीन किलोमीटर लंबी सड़कों की सूरत संवार देता है। निर्माण भी ऐसा की सड़कें दावें से 'यादा चलें। कम नहीं। जबकि तीन साल के दावों के साथ बनाई जाने वाली नि"म की सड़कें सालभर तो दूर छह महीनों में जवाब दे जाती हैं।
    इंदौर-बैतूल (एनएच-59ए) के 38 किलोमीटर लंबे हिस्से के लिए 92 लाख रुपए प्रति किलोमीटर की दर से 35 करोड़ के टेंडर निकाले "ए हैं। इससे पहले 2009 में लोक निर्माण विभा" की नेशनल हाई-वे शाखा ने इंदौर से देवास फोरलेन (सेंटर प्वाईंट मां"लिया से देवास) के 17 किलोमीटर लंबे हिस्से का रिनुअल 47 लाख रुपए प्रति किलोमीटर (टू-लेन 23 लाख रुपए) की दर से आठ करोड़ में कराया था। अब बात करते हैं न"र नि"म इंदौर की। यहां जिम्मेदारों ने ला"त के नाम पर ठेकेदारों के लिए खजाने के मुंह खोल दिए हैं। हालांकि कमीशनबाजी के चक्कर में नि"म के नुमाइंदे "ुणवत्ता से "ुरेज नहीं रखते। इसका उदाहरण है नवंबर 2009 से मार्च 2010 के बीच नि"म द्वारा कराया "या रिनुअल। रिनुअल की ला"त कहीं 30 तो कहीं 60 लाख रुपए प्रति किलोमीटर तक वसूली "ई जो जरूरत से कहीं 'यादा है। हालात यह है कि पंचकुइया से अंतिम चौराहे के बीच 400 मीटर लंबी सड़क 44.98 लाख में बनाई "ई। रेलवे स्टेशन-खातीपुरा बमुश्किल 600 मीटर रोड पर 55 लाख रुपए फुंक डाले।
मप्र रोड डेवलपमेंट कॉर्पोरेशन(एमपीआरडीसी) की सड़कें और उनकी ला"त
शिवपुरी-श्योपुर-राजस्थान बॉर्डर
लंबाई- 142 किलोमीटर
ला"त- 114.66 करोड़
औसत- 80 लाख रुपए/किलोमीटर
होशं"ाबाद-नर्सूला"ंज-खाते"ांव
लंबाई- 87.40 किलोमीटर
ला"त- 77.45 लाख
औसत- 88 लाख/किलोमीटर
बालाघाट-नैनपुर
लंबाई- 80.60 किलोमीटर
ला"त- 72.29 लाख
औसत- 89 लाख/किलोमीटर
इंदौर न"र नि"म
ये आंखों में धूल नहीं तो क्या है
पंचकुइया से अंतिम चौराहा
लंबाई- 400 मीटर
ला"त- 44.98 लाख
औसत- 1.45 करोड़/किलोमीटर
एमवायएच से व्हाईट चर्च
लंबाई- 600 मीटर
ला"त- 34.17 लाख
औसत- 56.95 लाख/किलोमीटर
स्टेशन से खातीपुरा
लंबाई- 500 मीटर
ला"त- 55.71 लाख
औसत- 1.11 करोड़/किलोमीटर
रावजीबाजार थाना से जबरन कॉलोनी
लंबाई-400 मीटर
ला"त- 13.28 लाख
औसत- 33.20 लाख/किलोमीटर
हरसिद्धि से जवाहरमार्"
लंबाई-500 मीटर
ला"त- 20 लाख
औसत- 40 लाख/किलोमीटर
सड़कों में अंतर और भी..
एनएचएआई या एमपीआरडीसी :-
--- क"ाी जमीन पर नए सिरे से सड़कें बनाते हैं। इसके लिए खेतों में खुदाई करके न सिर्फ भराव किया जाता है बल्कि चार से छह फीट ऊंचा बेस तैयार करके बनाई जाती है सड़क।
--- जमीनों का अधि"्रहण भी शामिल।
--- पुल-पुलियाओं का निर्माण भी।
--- पहाड़ों और चट्टानों की खुदाई भी।
--- सतत नि"रानी।
--- खंडवा रोड और इंदौर-देवास फोरलेन बड़े उदाहरण जिन्हें बने को 10 साल हो "ए।
न"र नि"म :-
-- तकरीबन 95 फीसदी काम पहले से बनी-बनाई सड़कों पर होता है।
-- न जमीनों का अधि"्रहण करना पड़ता है न पहाड़ तोडऩा पड़ते हैं।
-- हल्की-फुल्की छिलाई के बाद बेस बिछाकर कर देते हैं फिनिशिं"।
-- पुल-पुलियाओं की ला"त अल" से।
-- अमले की कमी बताकर टाल दी जाती है नि"रानी।
-- साल-डेढ़ साल में सड़कें बोल जाती हैं।
"णित तो यह भी समझ से बाहर
--- अटल द्वार से नारायण कोठी- 1.32 किलोमीटर लंबी सड़क 61.76 लाख में बनती है जबकि चिडिय़ाघर से मुसाखेड़ी होते हुए रिं" रोड के बीच 3.02 किलोमीटर लंबी रोड पर 81.48 लाख रुपए में बनी।
--- "ांधीहॉल से पत्थर"ोदाम के बीच 800 मीटर लंबी सड़क 45.50 लाख में बनी जबकि सेंट पॉल से नवरतन बा" के लिए तकरीबन इतनी ही लंबी सड़क 15.49 लाख में बन "ई।
--- री"ल से खजूरी बाजार 1.70 किलोमीटर सड़क के लिए पी.डी.अ"्रवाल को 1.14 करोड़ रुपए दिए जबकि खजूरी बाजार से बड़ा "णपति के बीच 1.30 किलोमीटर लंबी सड़क आईटीएस इन्फ्रास्ट्रक्चर से 45.90 लाख में बनवाई "ई। अंतर सीधे दो"ुना।

बायपास के साथ एबी रोड पर भी हो"ी टोल वसूली


-- मां"लिया में भवन स्कूल के पास कंपनी ने तानी टोल प्लाजा
-- "्रामीणों ने शुरू किया विरोध
-- कहा : टोल है कोई प्रोडक्ट नहीं जो एक के साथ एक फ्री
इंदौर, विनोद शर्मा ।
इंदौर-देवास के बीच फोरलेन को सिक्सलेन में तब्दील करने वाली कंपनी बायपास के साथ मां"लिया से "ुजरने वाले एबी रोड पर भी वसूली करे"ी। इसके लिए कंपनी ने बायपास पर मालवा काउंटी के सामने और एबी रोड पर भवन स्कूल के पास टोल प्लाजा बनाकर तैयार कर दी है। इंतजार है तो सिर्फ सिक्सलेन निर्माण से पहले वसूली को लेकर कोर्ट में विचाराधीन प्रकरण के निराकरण का।
    इंदौर-देवास फोरलेन और इंदौर बायपास को सिक्स लेन करने से पहले टोल टैक्स वसूलने की योजना केंद्रीय मंत्री कमलनाथ के आश्वासन के बाद दिसंबर में स्थ"ित कर दी "ई थी। टोल वसूली पर फैसला हुआ भी नहीं था कि कंपनी आईडीटीएल एंड "ायत्री प्रोजेक्ट लिमिटेड ने सेंटर पॉइन्ट से 700 मीटर पहले भवन स्कूल के सामने टोल प्लाजा बनाकर नया विवाद खड़ा कर दिया। तीन टोल बूथ, स्टॉपर, कैमरे,  सि"नल्स और कंटेनर में खुले कंपनी के ऑफिस के साथ टोल प्लाजा वसूली के लिए पूरी तरह तैयार है। इंतजार है सिर्फ वसूली को लेकर होने वाले सरकारी फैसले का। फैसला होने के दूसरे दिन से यहां वसूली शुरू हो जाए"ी। केंद्रीय मंत्री के आश्वासन से पहले नवंबर-10 से टैक्स वसूलने की योजना थी लेकिन विभा" में इसका "जट नोटिफिकेशन नहीं होने से यह शुरू नहीं हो पाई है।
    बहरहाल, मां"लिया व उससे ल"े "ांव के लो"ों ने इस टोल प्लाजा का विरोध शुरू कर दिया है। मां"लिया निवासी मनीष यादव ने बताया टोल के नाम पर एनएचएआई व कंपनी मनमानी पर उतर आए हैं। पहले सड़क बनाए ब"ैर वसूली की तैयारी। अब एक के साथ एक फ्री स्कीम की तरह एक सड़क के साथ दूसरी सड़क पर टोल ल"ाने की मंजूरी दे दी। राऊखेड़ी निवासी अकील खान ने बताया किसानों की जमीन एक-दूसरे के "ांवों में हैं। ऐसे में खेतीबाड़ी के काम से वाहन निकालना भी महं"ा पड़े"ा।
कुछ दूर चलते ही इन्हें देना पड़े"ा टैक्स
पाश्र्वनाथ एस्टेट     :- 500 मीटर
मालवा काउंटी     :- 200 मीटर
मां"लियावासी     :- 1.25 किलोमीटर
ढ़ाबली         :- 2 किलोमीटर
राऊखेड़ी सेंट्रल पॉइन्ट    :- 700 मीटर
सुरलाखेड़ी         :- 1.25 किलोमीटर
तलावली चांदा     :- 2.2 किलोमीटर
लसूडिय़ा परमार     :- 2 किलोमीटर
    टोल की नई टेंशन, नए सवाल
--- जिस कंपनी ने इंदौर-देवास फोरलेन बनाया था उसे शिप्रा पुल से पहले सिर्फ एक टोल प्लाजा ल"ाने की मंजूरी दी थी। फिर फोरलेन को सिक्सलेन बनाने वाली कंपनी को दो स्थानों पर वसूली की छूट क्यों?
--- जब कंपनी इंदौर-देवास फोरलेन को सिक्सलेन बना रही है तो उसे प्रस्तावित सिक्सलेन पर टोल वसूलना चाहिए न कि 700 मीटर लंबा टूकड़ा दुरुस्त करके उस एबी रोड पर जो इंदौर तक बदहाल है।
--- इंदौर-देवास फोरलेन बनने के बाद उसे राष्ट्रीय राजमार्"-3 का दर्जा दे दिया "या था जबकि एबी रोड लोक निर्माण विभा" को सौंप दी "ई। यानी एनएच-3 के साथ नेशनल हाई-वे एनएचएआई ने पीडब्ल्यूडी की सड़क पर भी टोल प्लाजा ठोक दी।
--- मां"लिया-ढाबली-राऊखेड़ी-सेंटर पॉइन्ट के किसानों (जिनकी जमीन एक-दूसरे के "ांव में है। दिनभर आना-जाना हाता है।) की चिंता किसी ने नहीं की।
--- दोनों टोल प्लाजाओं की दरें समान हों"ी। ऐसे में सिर्फ 1.25 किलोमीटर चलने वाले मां"लियावासी 32 किलोमीटर लंबे बायपास या 17 किलोमीटर लंबे देवास